Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 557
________________ ५३८ 'प्रथराज श्रीपञ्चाध्यायी लेश्याओं में गुणस्थान कृष्ण नील कापोत ये ३ लेश्या भाव चौथे गुणस्थान तक होते हैं। पीत पर लेश्या भाव सातवें गुणस्थान तक होते हैं। शुक्ल लेश्या वास्तव में दसवें तक किन्तु उपचार से तेरहवें तक पाई जाती है। औदयिक भावों का सार (१) २१ औदयिक भावों में ४ गति भाव, ४ कषाय भाव, ३ लिङ्गभाव, १ मिथ्यात्व भाव, १ असंयम भाव और ६ लेश्या भाव-ये सब १९ भाव तो मोह भाव के अवान्तर भेद हैं। ये सब दर्शनमोह और चारित्रमोह के उदय से होते हैं। यही वास्तव में विकारी हैं। बंधसाधक हैं। जीव के लिये महा अनिष्टकारक हैं और अनन्त संसार के कारण हैं बल्कि साक्षात् अनन्त संसार रूप ही हैं। इनका स्वरूप जानकर प्रत्येक मुमुक्षका कर्तव्य है कि इन को सर्वथा हेय जानकर यथाशक्ति त्याग करे। श्री समयसार सूत्र ७२,७३, ७४ इस विषय में विशेष उपयोगी हैं। उनके भाव का पुनः पुनः चिन्तवन करें ताकि इन भावों से बचा रहे। (२) अज्ञान औदयिक भाव शून्यतारूप है। दुःखरूप भी है पर इसमें सीधा कोई पुरुषार्थ नहीं चलता किन्तु उपरोक्त मोह भावों के त्याग करने से यह स्वयं नष्ट हो जाता है। यही दशा असिद्धत्व औदयिक भाव की है। आठों कर्मों या किसी भी कर्म के उदय से होने वाले विकार को असिद्धत्व भाव कहते हैं। सो उपरोक्त मोहभावों का त्याग करने से [निश्चल ज्ञायक भाव का अच्छी तरह आलम्बन करने से सब कर्म स्वयं नष्ट हो जाते हैं और जीव अपने स्वाभाविक सिद्धत्व भाव को प्राप्त कर लेता है। प्रश्नोत्तर प्रश्न २८१ - आत्मा के असाधारण भाव कितने हैं? उत्तर - पांच - औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक। भाव तो असंख्यातलोकप्रमाण है पर जानियों ने जाति के अपेक्षा बहुत मोटे रूप से इन ५ भेदों में विभक्त कर दिये हैं। इनके मोटे प्रभेद [ अवान्तर भेद ] ५३ हैं। प्रश्न २८२ - असाधारण भाव किसे कहते हैं ? उत्तर - असाधारण का अर्थ तो यह है कि ये भाव आत्मा में ही पाये जाते हैं। अन्य ५ द्रव्यों में नहीं पाये जाते। आत्मा में किस-किस जाति के भाव-परिणाम-अवस्थायें होती हैं-यह इससे ख्याल में आ जाता है और इनके द्वारा जीवको जीव कास्पष्ट ज्ञान साङ्गोपाङ्ग द्रव्य गुण पर्याय सहित हो जाता है। इन भावों के जानने से ज्ञान में बड़ी स्पष्टता आ जाती है। अच्छे बुरे [ हानिकारक अथवा लाभदायक] परिणामों का ज्ञान होता है जैसे मोह को अनुसरण करके होनेवाला औदयिक भाव हानिकारक तथा दुःखरूप है। मोह के अभाव से होने वाले औपशमिक-क्षायोपशमिक भाव मोक्षमार्ग रूप हैं तथा क्षायिक भाव मोक्षरूप हैं। क्षायिक ज्ञान दर्शन वीर्य जीव का पूर्ण स्वभाव है-क्षायोपशमिक एकदेश स्वभाव है। विपरीत ज्ञान विभाव रूप है। इत्यादिका प्रश्न २८३ - क्षायिक भाव किसे कहते हैं ? उसके कितने भेद हैं ? उत्तर- कर्म के क्षय को अनुसरण करके होनेवाले भाव को क्षायिक भाव कहते हैं। उसके ९ भेद हैं। १-क्षायिक सम्यक्त्व, २-चारित्र,३-ज्ञान, ४-दर्शन, ५-दान,-लाभ, ७-भोग,८-उपभोग और ९-वीर्य। इनको ९क्षायिक लब्धियाँ भी कहते हैं। ये भाव तेरहवें गुणस्थान के प्रारम्भ में प्रगट होकर सिद्ध में अनन्त काल तक धारा प्रवाह रूप से प्रत्येक समय होते रहते हैं। ९ भिन्न-भिन्न अनुजीवी गुणों की एक समय की ९क्षायिक पर्यायों के नाम हैं। आदि अनन्त भाव हैं। प्रश्न २८४ - औपशमिक भाव किसे कहते हैं और उसके कितने भेद हैं ? उत्तर - कर्म के उपशम को अनुसरण करके होनेवाले भाव को औपशमिक भाव कहते हैं। इसके २ भेद हैं।१ औपशामिक सम्यक्त्व, २-औपशमिक चारित्र । वह श्रद्धा और चारित्र गण का एक समय का क्षणिक

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