Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 528
________________ द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक ५०१ तो इसकी उत्पत्ति होती है। अतः यह द्रव्यमोह का कार्य है - आत्मा का नहीं। आत्मा में से निकल जाता है और क्षणिक औपाधिक भाव होने से हटाने के लिये उसे पौद्गलिक द्रव्यमोह का कार्य कह दिया है। भावमोह के कारणपने का स्पष्टीकरण निमितमात्रीकृत्योच्चस्तमागच्छन्ति पुगालाः । ज्ञानावृत्याटिरूपस्य तस्मादातोऽस्ति कारणम् ॥ १८३४ ॥ अन्वयः -तं [ मोहभावं ] उच्चैः निमित्तमावीकृत्य ज्ञानावृत्यादिरूपस्य पुद्गला: आगच्छन्ति। तस्मात् भाव: कारणं अस्ति । अन्वयार्थ - उस मोहभाव को वास्तव में निमित्तमात्र करके ज्ञानावरणादिरूप के पुद्गल आते हैं। इसलिये वह भावमोह कारण है। भावार्थ - यहाँ यह नहीं बताना है कि भावमोह कर्मों को बनाता है किन्तु यहाँ तो यह बता रहे हैं कि जिस समय यह जीव अपनी अज्ञानता के कारण भावमोह करता है तो उस समय जगत में स्वतः कर्मरूप परिणमने योग्य कर्म अपने स्तकाल की योगगता मे परिणगोहीहैंऔर यह शानमोह उनके परिणमन में निमित्तमात्र कारण बन जाता है। अतः इसका फल कर्मबन्ध है ही। जीव भावमोह करे और कर्मबन्ध न हो- ऐसा कभी होता ही नहीं। ऐसा ही कोई प्राकृतिक नियम है। इस प्रकार यह भावमोह आठों कर्मों के बन्ध का कारण भी है। भावमोह कार्य केवल मोहकर्म का है किन्तु कारण आठों कर्मों का है विशेषः कोऽप्ययं कार्य केवलं मोहकर्मणः । मोहस्यास्यापि बन्धस्य कारण सर्वकर्मणाम् ॥ १८३५॥ अन्वयः - कः अपि विशेषः । अयं कार्य केवलं मोहकर्मणःr किन्तु]कारणं अस्य मोहस्य बन्धस्य सर्वकर्मणां अपि। _अन्वयार्थ - कुछ विशेषता भी है। यह भावमोह कार्य तो केवल मोहकर्म का है [क्योंकि इसकी उत्पत्ति में केवल मोह कर्म का उदय निमित्त है] और कारण इस मोहकर्म के बन्थका और सब कर्मों के बन्धका भी है। क्योंकि मोहभाव से आठों कर्मों का बन्ध होता है । भावार्थ - जीव के ५ भावों का प्रकरण चल रहा है।५ भावों में से एक औदयिकभाव ही बन्ध के कारण हैं। जीव में नैमित्तिक औदयिकभाव तो आठों कर्मों के उदय में जुड़ने से होते हैं किन्तु उन सब औदपिक भावों में और इस मोह औदयिक भाव में यह विशेषता है कि और सब औदयिक भाव आगामी ८ कर्मों के बन्ध के रञ्चमात्र भी कारण नहीं हैं। स्वभाव का घात तो करते हैं। दुःख रूप भी हैं पर उनका फल आगामी बन्ध नहीं है। बन्ध तो केवल भाव मोह से ही होता है। साथ ही यह भी बताते हैं कि देखो यद्यपि इसकी उत्पत्ति तो केवल एक द्रव्यमोह के उदय में जुड़ने से ही हुई थी किन्तु बन्ध सब कर्मों का होता है। ऐसा ही कोई वस्तु स्वभाव है। एक का कार्य होने से कारण भी एक का ही हो- ऐसा नहीं है - ऐसा यहाँ अभिप्राय है। द्रव्यमोह से उत्पन्न हुआ है - इसलिये द्रव्यमोह को ही बाँधे - ऐसा नहीं है। यह तो सत्य है कि उत्पन्न केवल द्रव्यमोह से होता है किन्तु फिर भी बन्थ आठों का करता है। और अन्य औदयिक भाव उत्पन्न तो अपने-अपने प्रतिपक्षी कर्मों के उदय में जुड़ने से होते हैं - पर वे बन्ध किसी का नहीं करते - यह भी अन्य औदयिक भावों में और भावमोह में अन्तर है। अब यह कहते है कि यह जो भावमोह और द्रव्यकर्मों में कार्यकारणपने का सम्बन्ध है, इसी को आगम में निमित्त मैमित्तिक सम्बन्थ[या जीव और कर्म का बन्ध] कहा जाता है। जीव और पुद्गल कर्म का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध अस्ति सिर्द्ध ततोऽन्योन्यं जीतपुद्गलकर्मणोः । निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुम्भकुलालयोः || १८२६ ।। अन्वयः - ततः सिद्धं अस्ति। जीवपुदगलकर्मणोः अन्योन्यं निमित्तनैमित्तिक: भावः अस्ति यथा कुम्भकुलालयोः ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559