Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 532
________________ द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक भावार्थ - नाम कर्म के निमित्त से केवल द्रव्यवेद-शरीर में लिंग आकृति की रचना होती है। जीव के भावों में जो रमण करने की वांछा है-वह भाववेद है। उस भाववेद में नाम कर्म का उदय रंचमात्र भी कारण नहीं है। जब तक जीव भाववेद न करे तब तक केवल द्रव्यवेद कुछ नहीं कर सकता - केवल आकारमात्र है। इसलिए नवमें गुणस्थान से ऊपर केवल वेदों का द्रव्याकारमात्र है। जीव में इस जाति का नैमित्तिक कषाय नहीं होने से निमित्त में कारणपने का आरोप भी नहीं दिया जाता। भावार्थ-१८४५-४६-४७-इन तीन यह बताया गया है कि देहधारी जीव के निमित्त रूप से एक नामकर्म है। उसके शरीर और आंगोपांग नामा दो अवान्तर भेदों के उदय में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध के आधार पर शरीर में ये तीन प्रकार की आकृतियां बन जाती हैं। इन ३ आकृतियों का होना भाववेदों में रञ्चमात्र भी कारण नहीं है क्योंकि यह आकृति तो अरहन्त भगवान में भी होती है। अतः इन द्रव्यलिंगों का होना मात्र भावलिंगों में रञ्चमाञ भी कारण तु उसका कारण कुछ और ही है। इसप्रकार ३ सत्रों में द्रव्यलिंगों का वर्णन करके अब उन भावलिंगों का - सहेतुक वर्णन करते हैं अर्थात् पहले भावलिंगों का कारण बताते हैं फिर कार्य बताते हैं। भावलिंगों का कारण भाववेदेषु चारित्रमोहकर्मांशकोदयः। कारणं नूनमेकं स्याम्नेतरस्योदयः ग्वचित् ।। १८४८॥ अन्वयः - भाववेदेषु चारित्रमोहकर्माशकोदयः नूनं एकं कारणं स्यात्। इतरस्य उदयः क्वचित् कारणं न स्यात् । अन्वयार्थ - भाववेदों में चारित्रमोहकर्म का आंशिक उदय [ अर्थात् चारित्रमोह के वेद नामक नोकषाय का उदय ] ही निश्चय से एक कारण है। दूसरे किसी कर्म का उदय कहीं पर भी कारण नहीं है।[भावार्थ पहले सूत्र १८४० में लिख आये हैं। पुरुषभाववेद और स्वीभाववेद का लक्षण रिरंसा द्रव्यजारीणां पुंवेदस्योदयात् किल । नारीवेदोयाद्वेटः पुंसां भोगाभिलाषिता || १८४९ ।। अन्वयः - (वेदस्य उदयात् द्रव्यनारीणां रिरंसा स्यात् च नारीवेदोदयात् पुंसां भोगाभिलाषिता वेदः स्यात्। अन्वयार्थ - पुरुष वेद के उदग से [ पुरुषवेद के उदय में जुड़ने से ] द्रव्य स्त्रियों के भोगने की इच्छा पुरुष भाव वेद है और नारी वेद के उदय से पुरुषों के साथ भोग की अभिलाषा रूपभाव स्वीभाववेद है। नपुंसक भाव वेद का लक्षण नालं भोगाय नारीणां नापि सामशक्तितः । अन्तर्दग्धोऽस्ति यो भावः क्लीववेदोदयादिव ॥ १८५०॥ अन्वयः - अशक्तितः न नारीणां भोगाय न अपि पुंसां भोगाय अलं किन्तु यः भावः अन्तर्दग्धः अस्ति [स] क्लीववेदोदयात्। ____ अन्वयार्थ - अशक्ति के कारण न स्त्रियों के भोग के लिये और न पुरुषों के भोग के लिये समर्थ है किन्तु जो भाव केवल अंतरङ्ग जलन रूप है - वह नपुंसकवेद के उदय से होने वाला नपुंसक भाव वेद है। - अगली भूमिका - पहले ३ सूत्रों में द्रव्यलिङ्गों का वर्णन किया। फिर ३ सूत्रों में भावलिङ्गों का वर्णन [ कारण और कार्य ] बताया। अब यह बताते हैं कि द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग का आपस में कुछ मेल भी है या नहीं। कहाँकहाँ जैसा द्रव्यलिङ्ग होता है - वैसा ही भावलिङ्ग होता है -- यह बताते हैं तथा कहाँ-कहाँ द्रव्यलिंग और भावलिंग में विषमता-असमानता है अर्थात् द्रव्यलिङ्ग अन्य है और भावलिङ्ग अन्य है - यह बताते हैं। इसका अगले १० सों में सब गतियों में भिन्न-भिन रूप से खुलासा वर्णन करते हैं: लिङ्गों की उत्पत्ति का साधारण नियम द्रव्यलिङ्ग यथा नाम भावलिङ्ग तथा क्वचित् । क्वचिदन्यतमं द्रव्य भावश्चान्यतम अन्वयः - क्वचित् यथा द्रव्यलिंगं नाम तथा भावलिंगं स्याता क्वचित द्रव्यं अन्यतमं च भावः अन्यतमः भवेत्।

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