Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 531
________________ ५१२ ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी नोकषाय के १ भेद तत्रापि नोकषायाव्यं नवधा स्वविधानतः । हास्यो रत्यरती शोको भीर्जुगुप्सेति त्रिलिङ्गकम् ।। १८४२ ॥ अन्वयः - तत्र अपि नोकषायाख्यं स्वविधानतः नवधा-हास्यः रत्यरती शोकः भी: जुगुप्सा त्रिलिङ्गकं इति। अन्वयार्थ - उनमें भी नोकषायनामक कर्म अपने अवान्तर भेदों से नौ प्रकार है। १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. । शोक, ५. भय, ६. जुगुप्सा, तीन लिङ्ग ७. स्त्रीवेद, ८. पुरुषवेद, ९. नपुंसकवेद। नोकषायों में औदयिकपने की सिद्धि ततश्चारित्रमोहस्य कर्मणो ह्यटयाद् धुवम् । चारित्ररय गुणस्यापि भावा वैभाविका अमी ।। १८४३॥ अन्वयः - ततः चारित्रमोहस्य कर्मणः हि उदयात् अमी अपि ध्रुवं चारित्रस्य गुणस्य वैभाविकाः भावाः। अन्वयार्थ - इसलिये चारित्रमोह कर्म के उदय से उनके आश्रय करने से ये ९ भाव भी वास्तव में चारित्र गुण के वैभाविक भाव [ औदयिक भाव ] हैं। लिङ्गों के भेद प्रत्येक द्विविधान्येत लिङ्गानीह निसर्गतः।। दव्यावविभेदाभ्यां सर्वज्ञाज्ञानतिक्रमात ॥१८५४॥ अन्वयः - सर्वज्ञाज्ञानतिक्रमात् इह प्रत्येकं लिङ्गानि निसर्गतः द्रव्यभावविभेदाभ्यां द्विविधानि एव। अन्वयार्थ - सर्वज्ञ की आज्ञा को उलङ्घन न करके [ अर्थात् आगमानुसार ] इस जगत् में प्रत्येक लिङ्ग स्वभाव से ही द्रव्यलिंग और भावलिंग के भेद से दो प्रकार का है। भावार्थ - क्योंकि यह लिंग नामा औदयिक भावों का वर्णन है - अतः ३ प्रकार के लिंग औदयिक भावों का ज्ञान पहले ४ सूत्रों में कराया है। अब लिंग शब्द जगत में और आगम में २ प्रकार से प्रसिद्ध है। एक द्रव्यलिंग के लिये लिंग शब्द का प्रयोग होता है दूसरे भावलिंग के लिये लिंग शब्द का प्रयोग होता है। शरीर में लिंगों की आकृति को द्रव्यलिंग कहते हैं। सो पहले उसी का सहेतुक वर्णन अगले ३ सूत्रों में करते हैं। द्रव्यलिङ्गों का कारण - १८४५-४६-४७ अरित यन्जाम कमैकं नानारूपं च चित्रवत्। पौगलिकमचिदूपं स्यात्पुद्गलतिपाकि यत् ॥ १८४५ ॥ अन्वयः - यत् एकं नामकर्म अस्ति-तत् चित्रवत् नानारूपं। यत् पौद्गलिक, अचिद्रूपं, पुद्गलविपाकि च स्यात्। अन्वयार्थ - जो एक नामकर्म है - वह चित्र की तरह नानारूप है। जो पौद्गलिक है, अचिद्रूप है और पुद्गलविपाकि है। आङ्गोयाङ्ग शरीरं च तदेटौ स्तोऽप्यभेदवत् । तद्विपाकात त्रिलिङ्गानामाकारा: सम्भवन्ति च ।। १८४६॥ अन्वयः - आङ्गोपांगं च शरीरं तद्भेदी स्तः अपि अभेदवत् स्तः च तद्विपाकात् त्रिलिङ्गानां अकाराः सम्भवन्ति । अन्वयार्थ - आङ्गोपाङ्ग और शरीर उस नामकर्म के दो भेद होने पर भी अभेदवत् हैं और उन दोनों के उदय से तीन द्रव्य लिङ्गों के आकार उत्पन्न होते हैं। त्रिलिङ्गाकारसम्पत्तिः कार्यं तन्जामकर्मणः । नास्ति तब्दावलिङ्गेषु मनागपि करिष्णुता ।। १८४७ ।। अन्वयः - त्रिलिङ्गाकारसम्पत्तिः तन्नामकर्मण: कार्य। तत् भावलिंगेषु मनाक् अपि करिष्णुता नास्ति। अन्वयार्थ -- तीन लिङ्गों के आकार रूप सम्पत्ति उस नाम कर्म का कार्य है। वह नामकर्म भावलिङ्गों में थोड़ा भी कार्य करनेवाला नहीं है।

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