Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 539
________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी (३) धर्म तत्त्व धर्म तत्त्व २ प्रकार है। एक निश्चय धर्म, दूसरा व्यवहार धर्म निश्चय धर्म तो वस्तु का स्वभाव है। राग द्वेष रहित अपना ज्ञाता दृष्टा स्वभाव में स्थिर होना निश्चय धर्म है। इसी का नाम चारित्र है। और व्यवहार धर्म २ प्रकार है । उस निश्चय धर्म का सहचर निमित्तरूप व्यवहार करिये तब धर्म के २ भेद होते हैं - देशसंयम, सकल संयम । जहाँ मिथ्यात्व सहित एकदेश विषय कषाय और पाँच पाप रूप अन्तरंग परिणमन का त्याग सो देश संयम वा इस धर्म को बाह्य ५ अणुव्रतादिक, तीन गुणव्रत, ४ शिक्षाव्रत इन १२ व्रत का ग्रहण सो भी देशसंयम कहा जाता है क्योंकि यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके इनको संयम कहा है और जहाँ सर्व प्रकार मिध्यात्व विषय कषाय और पाँच पापों का त्याग वह सकल संयम है वा सकल संयम के कारण बाह्य २८ मूलगुण वा ८४ लाख उत्तरगुणों का ग्रहण भी व्यवहार सकल संयम है। ५२० (४) आप्त तत्त्व जीव का परमहित जो मोक्ष उसका उपदेष्टा वह आप्त कहा जाता है। वह आप्त २ प्रकार है एक मूल आप्त दूसरा हा आप्त हो गये हैं सकस पदार्थ जिनको और नाश को प्राप्त हुये हैं ४ घातिया कर्म उनको नाश कर अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हो गये हैं। ऐसे श्री अरहन्त महाराज १२ सभा में तिष्ठ कर मोक्षमार्ग का उपदेश करते हैं - वे मूल आप्त हैं और उन ही के अनुसार कथन करने वाले ऐसे सम्यग्दर्शनादिक के धारक गणधरादिक आचार्य उत्तर आप्त हैं। 1 (५) आगम तत्त्व - आप्त का जो वचन वह आगम कहा जाता है। वह आगम कैसा है ? प्रमाण नय आदिक द्वारा अबाधित है। क्योंकि आगम केवली के वचन हैं - इसलिये बाधित होते नहीं । आगम में तीन प्रकार पदार्थ कहे हैं (१) उपादेय, (२) हेय, (३) ज्ञेय। इन ३ प्रकार पदार्थों में जितने प्रमाण गोचर हों - उतने पदार्थों को प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सिद्ध करना और जो अनुमान प्रमाण करि सिद्ध हों - उनको अनुमान प्रमाण कर सिद्ध करना और जो आगम प्रमाण करि ही सिद्ध होंय उनको सुनिश्चित संभव अबाधक प्रमाण कर सिद्ध करना। उनमें जो अबाधित होय - वह जिनागम जानना और जो बाधित होय वह जिनागम न मानना। ऐसा भी न मानना कि जो ये 'प्राकृतमय हैं, संस्कृतमय हैं, या बड़े आचार्य के नामकरि बेष्ठित हैं - ऐसी प्रतीति कर अर्थ का श्रद्धान न करना क्योंकि अब कलिकाल के दोष से कषायी पुरुषों द्वारा शास्त्रों में अन्यथा अर्थ का मेल हो गया है। इसलिये जैन न्याय के शास्त्रों की ऐसी आज्ञा है कि (१) आगम का सेवन (२) युक्ति का अवलम्बन (३) परम्परा गुरु का उपदेश (४) स्वानुभव इन ४ विशेषों का आश्रय करके अर्थ की सिद्धि करके ग्रहण करना । अन्यथा अर्थ के ग्रहण होने से जीव का अकल्याण होता है । (६) पदार्थ तत्त्व - पद का अर्थ कहिये प्रयोजन उसको पदार्थ कहते हैं। वे पदार्थ नौ प्रकार हैं ( ९ ) जीव ( २ ) अजीव (३) आस्रव (५) बन्ध (५) संवर ( ६ ) निर्जरा ( ७ ) मोक्ष (८) पुण्य ( ९ ) पाप । इनका स्वरूप जिनागम में जैसा कहा है वैसे ही स्वरूप सहित ग्रहण करना क्योंकि ये मोक्ष के कारण हैं। जिस स्वरूप कर तिष्ठे हैं उस ही स्वरूप करि ग्रहण करना सो मोक्ष के कारण होते हैं। अन्यथा स्वरूप करि ग्रहण किये ये ही संसार के कारण होते हैं। ऐसे मोक्ष के कारण ये ६ तत्त्व हैं १. देव, २. गुरु, ३. धर्म, ४. आप्त, ५. आगम, ६. पदार्थ। इनका यथार्थ स्वरूप सहित जैसे का तैसा श्रद्धा करना सो व्यवहार सम्यग्दर्शन, इनका यथार्थ स्वरूप जाने सो सम्यग्ज्ञान, इनके विषय यथावत प्रवृत्ति करना सो सम्यक्चारित्र - यह ही त्रिधा स्वरूप को धारण किया हुआ मोक्षमार्ग जानना। इन ६ तत्त्वों में एक की भी हानि होय तो मोक्षमार्ग की हानि हो जाय। जो देवतन्त्र न होय तो धर्म किसके आश्रय प्रवर्ते । गुरु तत्त्व न होय तो धर्म को ग्रहण कौन करावे । धर्म तत्त्व को ग्रहण न करिये तो मोक्ष की सिद्धि किसके द्वारा की जाय। आप्त का ग्रहण न होय तो सत्य धर्म का उपदेश कौन दे । आगम का ग्रहण न होय तो मोक्षमार्ग में अवलम्बन किस का करे। पदार्थों का ज्ञान न कीजिये तो आपका और पर का, अपने भावों का और पर भावों का हेय भावों का और उपादेय भावों का अहित का और अपने परम हित का कैसे ठीक होय। इसलिये इन ६ तत्त्वों का अवश्य मोक्षमार्ग में ग्रहण है। और जहाँ तीव्र मिध्यात्ववश इन ही ६ प्रकार तत्त्वों का अन्यधा ग्रहण करना • वह गृहीत मिथ्यात्व भाव है। वह गृहीत मिथ्यात्व भाव इनमें ५ प्रकार प्रवर्त्ता है ( १ ) एकान्त ( २ ) विनय (३) संशय (४) विपरीत (५) अज्ञान । इसलिये गृहीत मिध्यात्व के मूल भेद ५ प्रकार हैं। उत्तर भेद असंख्यात् लोकप्रमाण हैं। इन ५ प्रकार के मिध्यात्व को -

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