Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 545
________________ ५२६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी भावार्थ - संयम भाव के २ भेद हैं। एक निश्चय संयम दूसरा व्यवहार संयम। आत्मा में चारित्रगुपप जितने अंश में शुद्ध आत्मा के आश्रय से शुभाशुभ विकल्प रूप क्रिया से रहित शुद्ध हो गया है अर्थात् मोहक्षोभ रहित हो गया है - राग द्वेष मोह रहित हो गया है - वह तो निश्चय संयम है। यह पर्याय में आत्मप्राप्तिरूप है क्योंकि आत्मा स्वभाव से निष्क्रिय है और उसका निष्क्रिय रूप होना ही शुद्ध भाव है। यह निश्चय संयम है। यह ज्ञानियों के ही होता है और पाँचवें गुणस्थान से प्रारम्भ हो जाता है। यह नीचे की पंक्ति का अर्थ है। अब ऊपर की पंक्ति का अर्थ लिखते हैं। सक्रिय संयम शुभ प्रवृत्ति रूप है। इसके दो भेद हैं। पहलाइन्द्रिय संयमदूसरा प्राणी संयम। फिर प्रत्येक के भेद हैं। ५ इन्द्रिय और छठे मन के निरोधरूप६ प्रकार का इन्द्रिय संयम और ५ स्थावर और एक त्रस के संरक्षण रूप ६ प्रकार का प्राणी संयमा इस प्रकार विस्तार से १२ भेद रूप है। इसको व्यवहार कहने का कारण यह है कि इन्द्रियाँ भी परद्रव्य हैं और परजीव भी परद्रव्य हैं - इनका संरक्षण तो मैं कर ही नहीं सकता ऐसा अन्तर में तो ज्ञानी जानता है- बाहर में क्योंकि अशुभभाव निवृत्त हो गया है अतः उन इन्द्रियों की अशुभ प्रनित होने से कार देते हि जागी ने इन्द्रिय संयम कर लिया। इसी प्रकार इन्द्रियविषयों में ज्ञानीको स्वभावतः अरुचि हो जाती है और उन विषयों के कारण जो प्राणीबध होता था - उसकी निवृत्ति हो जाती है। अतः प्रापणीघात न होने से प्राणीसंयम कह देते हैं। इन्द्रिय संयम और प्राणीसंयम में जितना शुद्ध भाव है उतना अंश तो निश्चय संयम का है। जितना अंश अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति रूप भाव है - उतना व्यवहार संयम है। वह शुभ विकल्प निश्चय से असंयम रूप है पर अशुभ की निवृत्ति की अपेक्षा उसे उपचार से संयम कहने की आगम तथा लोक में रूढ़ि है। इसलिये व्यवहार से व्रत के अभाव को असंयम और व्रत [शुभ विकल्प] के सद्भाव को संयम कहा है। व्यवहार संयम का ही दूसरा नाम सक्रिय संयम है। पहले उसका ही निरूपण करते हैं : पहला इन्द्रियनिरोध नामा सक्रिय संयम पञ्चानामिन्द्रियाणाञ्च मनसश्च निरोधनात । स्यादिन्द्रियनिरोधारव्यः संयमः प्रथमो मतः ॥ १८८३|| अन्वयः - पञ्चानां इन्द्रियाणां च मनसः निरोधनात् इन्द्रियनिरोधाख्यः संयमः स्यात्। प्रथमः मतः। अन्वयार्थ- [निश्चय सम्यग्दर्शन और आंशिक वीतरागभाव सहित ज्ञानीको] पाँचों इन्द्रियों के और मन के निरोध से इन्द्रियनिरोध नामक संयम होता है। यह पहला संयम माना गया है। भावार्थ - ज्ञानी के स्वतः जितने अंश में पाँच इन्द्रियों की और छठे मन की अशुभ प्रवृत्ति नहीं रहती - उतने अंश में उसके छ: प्रकार का इन्द्रिय संयम माना गया है। दुसरा प्राणसंरक्षण नामा सक्रिय संयम स्थावराणां च पञ्चानां सस्यापि च रक्षणात् । असुसंरक्षणारख्यः स्याद् द्वितीयः प्राणसंयमः || १८८५ ॥ स्य अपि रक्षणात् असुसंरक्षणाख्यः द्वितीयः प्राणसंयमः स्यात्। अन्वयार्थ -[निश्चय सम्यग्दर्शन और आंशिक वीतरागभाव सहित ज्ञानी को] पाँच स्थावरों के और त्रस के भी रक्षण से प्राणसंरक्षण नामक संयम होता है। यह दूसरा प्राण-संयम है। भावार्थ - ज्ञानीको जो छ: काय के जीवों के वध में अशभ प्रवृत्ति नहीं होती- उसको छः प्रकार का प्राणसंयम या प्राणीसंयम कहा जाता है। शङ्का नन किं नु निरोधत्वमक्षाणां मनसस्तथा । संरक्षण च किन्जाम स्थावराणां त्रसस्य च ॥ १८८५॥ अन्वयः - ननु अक्षाणां तथा मनसः निरोधिवं नु किं च स्थावराणां च त्रसस्य संरक्षणं किं नाम। अन्वयार्थ-शङ्का-इन्द्रियों का तथा मन का रोकना वास्तव में क्या है और स्थावरों का तथा त्रस का संरक्षण क्या है? [अर्थात् इन दोनों प्रकार के क्रियात्मक संयम का क्या स्वरूप है?]

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