Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 535
________________ ५१६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अन्वयार्थ - और वे भाववेद भी चारित्रमोह भाव के अन्तर्भावी हैं और केवल एक संक्लेश रूप होने के कारण मात्र पापकर्मों के अथ के कारण हैं। भावार्थ - मूर्छित करनेवाले भाव को मोहभाव कहते हैं। उसके दो भेद हैं। एक दर्शनमोह अर्थात् मिथ्यादर्शन भाव। दूसरा चारित्रमोह भाव। मिथ्यादर्शन भाव श्रद्धागुण का विभाव परिणमन है। और चारित्रमोह भाव चारित्रगुण का विभाव परिणमन है। उस चारित्रमोह भाव के १३ अवांतर भेद हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसक वेद। ये सब चारित्र गुण के विभाव परिणमन हैं। इसलिये ये लिंग भाव चारित्रमोह भाव के अवान्तरभेद हैं - ऐसा यहाँ बताया है। अब इन लिंग भावों का स्वरूप बताते हैं कि ये भाव अत्यन्त मलिन हैं - दःख रूप हैं। आत्मा को संबात करते हैं ... चलाते हैं। कोजीले उनके वश में इतना खो जाता है कि आत्मा का स्वभाव अत्यन्त तिरोभूत हो जाता है और पागलवत् डोलता है। यह तो इस भाव का प्रत्यक्ष फल है और आगामी काल के लिये अत्यन्त निकृष्ट पापकर्मों के बन्ध का कारण बनकर नरक तिर्यञ्च के भयङ्कर दुःखों का साधन बनता है। ऐसा यहाँ बताया है। यह भाव सबको अनुभवगम्य ही है। अधिक क्या कहें। कोई-कोई जीव तो इसके वशीभूत होकर माँ, बहिन, पुत्री, स्वस्त्री, परस्त्री, नीच-ऊँच कुल की, तिर्यञ्चनी आदि का सब विवेक खो देते हैं। केवल विषय वासना की पूर्ति होनी चाहिये। इस भाव में आत्मा का अत्यन्त पतन हो जाता है अत: पाप से डरने वाले जीवों को अवश्य अपने को इस भयानक भूल से बचाना चाहिये।यह भाव आत्म कल्याण में महान बाधक है। इसी भाव की अधिकता का फल व्यभिचार और फलस्वरूप नरक गति है। अब यह बताते हैं कि यह सब फल भाववेद का है। द्रव्यवेद का नहीं। द्रव्यलिंग बन्ध के कारण नहीं हैं दन्यलिंगानि सर्वाणि जात्र बन्धस्य हेतवः। देहमात्रैकवृत्तत्वे बन्धस्याकारणात्स्वतः ॥ १८६३ ॥ अन्वयः - अत्र सर्वाणि द्रव्यलिङ्गानि बन्धस्य हेतवः न देहमात्रैकवृत्तत्वे स्वतः बन्धस्य अकारणात्। अन्वयार्थ - यहाँ लिङ्गों के प्रकरण में ] सब द्रव्यलिङ्ग बन्थ के कारण नहीं हैं क्योंकि वे केवल एक देहमात्र के आश्रय होने से स्वतः बन्ध के अकारण हैं। भावार्थ - द्रव्यवेद शरीर में चिन्ह मात्र है और मात्र चिन्ह बन्ध का कारण नहीं हो सकता। शरीर आकृति बन्ध का कारण नहीं हो सकती। शरीर आकृति मात्र तो अरहन्तों में भी होती है। भावलिङ्गी महामुनियों में भी होती है। लिङ्ग भाव का सार औदयिक लिङ्ग भाव में द्रव्यलिङ्ग से कोई प्रयोजन नहीं है - केवल भावलिङ्ग को ही ग्रहण किया गया है। ये भी चारित्र मोहभाव के ही अवान्तरभाव हैं। अत्यन्त मलिन बन्धसाधक भाव है। जीवों को इनका प्रत्यक्ष अनुभव है अत: अधिक भावार्थ नहीं लिखा गया है। इस भाव के आधीन हुआ जीव अपने को बुरी तरह सर्वथा खो बैठता है जिनकी जगत् में बहुत कथायें प्रसिद्ध हैं। द्रन्यकर्मों के बन्ध का कारण भी है। अतः हेय है। मिथ्यादर्शन औदयिक भाव (सूत्र १८६४ से १८६६ तक ३) मिथ्यादर्शन भाव का कारण और उसमें औदयिकपने की सिद्धि मिथ्यादर्शनमारव्यात घातान्मिथ्यात्वकर्मणः । भावो जीवस्य मिथ्यात्वं स स्यादौदयिकः किल ॥ १८६४॥ अन्वयः - मिथ्यादर्शनं मिथ्यात्वकर्मणः घातात उदयात् ] आख्यातं। मिथ्यात्वं जीवस्य भावः[अस्ति । स किल औदयिकः। अन्वयार्थ - मिथ्यादर्शन मिथ्यात्व कर्म के उदय[ में जुड़ने से कहा गया है। मिथ्यात्व जीव का भाव है।वह निश्चय से औदायक है।

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