Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 529
________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अन्वयार्थ - इसलिये यह सिद्ध हो गया कि जीव और पुद्गल कर्म के आपस में निमित्त नैमिनिक भाव है जैसे कुम्हार घड़े का। भावार्थ - जब जीव अपनी अज्ञानता के कारण स्वभाव को भलकर द्रव्यमोह रूप निमित्त में जड़ता है अर्थात निमिन को कारण बनाता है तो भावमोह उत्पन्न होता है और उस भावमोह को निमित्तमात्र करके कार्माणवर्गणायें कर्म रूप में परिणत हो जाती हैं। जब पुन: जीव राग करता है तो वही कार्माणवर्गणायें जो पहले भावमोह से बंधी थी- इसमें निमित्त कारण पड़ती हैं। इस प्रकार अनादि से भावमोह और द्रव्यमोह की कार्य कारण रूप श्राला चली आ रही है। इसी को जीव और पुद्गल कर्मों का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं - वह स्वतन्त्र रूप से अपनी-अपनी योग्यता [निज शक्ति ] के कारण से है। वास्तव में कोई दूसरे की पर्याय का कर्ता नहीं है - ऐसा सर्वत्र समझना। वास्तव में जीव का नहीं किन्तु वर्तमान एक समय की पर्याय में कषाय और कर्म का निमित्त नैमितिक सम्बन्ध है। अन्तर्दृष्ट्या कषायाणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्तनैमित्तिको भावः स्यान्न स्याजीतकर्मणोः || १८३७ ।। यतस्तत्र स्वयं जीवे निमित्ते सति कर्मणाम् । नित्या स्यात्कर्तृता चेति न्यायान्मोक्षो न कस्यचित् ॥ १८३८।। अन्वमः . यतका रयां मिमित्तिक: भावः स्यात् जीवकर्मणो: न स्यात् यत: तत्र कर्मणां जीवे स्वयं निमित्ते सति कर्तृता नित्या स्यात् च इति न्यायात् कस्यचित् मोक्ष: न स्यात् । अन्वयार्थ - अन्तर्दृष्टि से कषायों का और कर्मों का परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव है - जीव कर्म का नहीं क्योंकि उन कर्मों का जीव के स्वयं निमित्त होने पर जीव के कर्मों का कर्तापना नित्य ठहरता है और इस न्याय से किसी को भी मोक्ष न होगी। भावार्थ- यदि कर्म का निमित्त नैमित्तिक कषाय के साथ न मानकर आत्मद्रव्य के साथ मानोगे तो वह आत्मद्रव्य का स्वभाव ठहरेगा और ज्ञानगुणवत् आत्मा में सदा रहेगा। उसके निमित्त से कर्म बन्धते ही रहेंगे और उनके फलस्वरूप संसार चलता ही रहेगा। जीव का कभी मोक्षन होगा। यह सूत्र आध्यात्मिक चीज का है और श्री समयसार सूत्र १०० से लिया है। क्योंकि त्रिकाली ज्ञायक आत्मा नित्य है और कषाय एकसमय का पर्याय मात्र में विभाव है। अतः विकारी पर्याय के साथ ही कर्मोका निमित्त नैमित्तिक है। त्रिकाली द्रव्य से नहीं। त्रिकाली द्रव्य तो अपने अनन्तगणों का पिण्ड है। उस का कर्मबन्धक कोई गुण नहीं है जो वह बन्ध का कारण होवे। पुनः भावार्थ - पर्यायदृष्टि से द्रव्य जिस समय जिस भाव में वर्तता है - उस समय उस भाव से तन्मय हुआ उस रूप कहा जाता है। इस अपेक्षा [ अर्थात् पर्याय अपेक्षा] पूर्वसूत्र में जीव और द्रव्यकर्मों का निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध कहा है किन्तु शुद्धदृष्टि[ द्रव्यदृष्टि से देखने पर अनन्तगुणसमूहरूपत्रिकाली स्वभाव को द्रव्य कहते हैं और भावमोह उसके ऊपर तिरने वाला क्षणिक विकार है। पर्याय है। बन्ध का कारण वह क्षणिक विकार है। स्वभाव नहीं। यदि स्वभाव होता तो त्रिकाल रहता और फिर सदा कर्मबन्ध होते रहने के कारण मोक्ष प्राप्ति असम्भव हो जाती। ज्ञानी इस भेद को जानते हैं। अज्ञानी नहीं जानते। अत: अज्ञानी की अपेक्षा तो जीवद्रव्य और कर्म का निमित्त-नैमित्तिक कहो या कषाय और कर्म का निमित्त-नैमित्तिक कहो - एक ही बात है। किन्तु ज्ञानी इस भेद को जानते हैं कि कर्म का सम्बन्ध विकार से है - स्वभाव से नहीं। अत: वे अपने द्रव्यस्वभाव का आश्रय करके श्रद्धान-ज्ञान-आचरण करके ] साधक हो साध्यपद को प्राप्त कर लेते हैं और इस सम्बन्ध का नाश कर देते हैं। इस सूत्र में ग्रन्थकार ने भावमोह के स्थान पर उसके पयायवाची कषाय शब्द का प्रयोग कर दिया है क्योंकि आगम में भावमोह की बजाय कषाय और योग को बन्ध का कारण कहा है किन्तु प्रकरण यहाँ उस भावमोह का ही चला आ रहा है। अब कवाय अधिकार को संकोचते हैं -

Loading...

Page Navigation
1 ... 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559