________________
४०४
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
__निश्चय धर्म सूत्र १५१५ से १५४० तक २६ उक्तमस्ति क्रियारूपं व्यासाद तकदम्बकम् ।
सर्वसावायोतारय तदेकरय निवृत्तये ॥ १५१५ ॥ सूत्रार्थ - जो विस्तार रूप से क्रियारूप व्रतसमूह कहा गया है वह सब केवल एक सर्वसावद्ययोग के निवारण करने के लिये हैं कषाय से अर्थात् शुभाशुभ भाव से अनुरंजित योग प्रवृत्ति को सावधयोग कहते हैं वह अधर्म है। उसका अभाव धर्म है।
अर्थाजैलोपदेशोऽयमरत्यादेश: स एव च ।
सर्वसावायोगस्य निवृत्तिर्बतमुच्यते ॥ १५१६ ।। सूत्रार्थ - वास्तव में जैनोपदेश यही है और वह ही आदेश है कि सर्वसावद्यायोग की निवृत्ति व्रत कहा जाता है ( शुभाशुभ भाव युक्त योग प्रवृत्ति को सावध योग कहते हैं ।
सर्वशब्देन तत्रान्तर्बहिर्वतिर्यदर्थतः ।
प्राणछेटो हिसावयं सैव हिंसा प्रकीर्तिता ॥ १५१७ ॥ सूत्रार्थ - उसमें (सर्वसावग्रयोगनिवत्ति) शब्दार्थ की अपेक्षा से सर्व शब्द से अन्तरंग और बहिरंग वृत्ति लिया गया है) सावध प्राण नाश है वह ही हिंसा मानी गई है।
योगस्तनोपयोगो वा बुद्धिपूर्वः स उच्यते ।
सूक्ष्मश्चाबुद्धिपूर्वो यः स स्मृतो योग इत्यपि ॥ १५१८॥ सत्रार्थ - और उसमें योग शब्द का अर्थ उपयोग है। वह बदिपर्वक भी उपयोग कहा जाता है अबुद्धिपूर्वक है वह भी उपयोग माना गया है।
तस्याभावान्जित्तिः स्याद वतं वार्थादिति स्मतिः ।
अंशात्साप्यंशतस्तत्सा सर्वतः सर्वतोऽपि तत ॥ १५१९॥ सूत्रार्थ - उस (सर्व सावध योग ) के अभाव से जो निवृत्ति है वह वास्तव में व्रत माना गया है। वह निवृत्ति अंशरूप से हो तो वह व्रत भी अंशरूप से (अणुव्रत रूप से) कहा गया है और यदि वह निवृत्ति संपूर्ण रूप से हो तो वह व्रत भी सर्वदेश से ( महाव्रत ) कहा गया है।
सर्वतः सिद्धमेवैतद्वतं बाह्य दयाङ्गिषु ।
व्रतमन्तःकषायाणां त्यागः सैषात्मनि कृपा ॥१५२० ॥ सूत्रार्थ - यह सब तरह से सिद्ध होता है कि बाह्य व्रत प्राणियों पर दया करना है और अन्तरंग व्रत कषायों का . त्याग है। वही यह अपनी आत्मा पर कृपा है।।
लोकसंख्यालमात्रास्ते याचदागादयः स्फुटम् ।
हिंसा स्यात संविदाटीना धर्माणां हिंसनाच्चितः ॥१५२१ ।। सूत्रार्थ - जब तक वे असंख्यात लोकप्रमाण रागादिक भाव रहते हैं तबतक प्रगट रूप से आत्मा के ज्ञानादि धर्मों । की हिंसा होने से हिंसा होती है।
अर्थादागाटयो हिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः ।
अहिंसा तत्परित्यागो वतं धर्मोऽथवा किल ॥ १५२२ ।। सूत्रार्थ - वास्तव में रागादिक ही हिंसा है अथवा अधर्म है अथवा व्रतच्युति है। निश्चय से उस रागादिक का त्याग । अहिंसा है अथवा व्रत है अथवा निश्चय से धर्म है।
आत्मेतराङ्गिणामंगरक्षर्ण यन्मतं स्मृतौ ।
तत्परं स्वात्मरक्षायाः कृते नातः परत्र तत् ॥ १५२३ ॥ सूत्रार्थ - आगम में अपना और दूसरे प्राणियों का अंगरक्षण(प्राणों की रक्षा-दया-अहिंसा) जो माना गया है। 1 वह केवल स्वात्म रक्षा के लिये ही किया गया है। इसलिये वह पर के लिये नहीं है।
.
.
.