Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 473
________________ द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक हाहा भावार्थ-शंकाकार ने, जिस समय सम्यग्दृष्टि का उपयोग स्व में रहता है उस समय तो उसका नाम निर्विकल्य सम्यग्दृष्टि रक्खा और जब उसका उपयोग पर में जाता है - उस समय उसका नाम सविकल्प सम्यग्दृष्टि रक्खा क्योंकि विकल्प का अर्थ-अर्थ से अर्थान्तर रूप संक्रान्ति किया है और उसी के आधार से उसने यह धारणा बनाई। अब वह कहता है कि यह तो बही बात हुई जो प्रारम्भ में थी अर्थात् निर्विकल्प सम्यग्दृष्टियों के ही उपयोगात्मक ज्ञानचेतना रही और जिस समय उनका उपयोग पर में गया - उस समय वे सविकल्प सम्यग्दृष्टि हो गये और उनके उपयोगात्मक झानचेतना नाश हो गई इसलिए अब वह पूछता है कि उपयोग के पर में जाने से उपयोगात्मक ज्ञानचेतना का नाश तो है ही-इतनी हानि तो है ही? [ पहले शंकाकार सविकल्प सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना नहीं मानता था किन्तु अब उसके लब्धिरूप ज्ञान चेतना तो मानता है पर उपयोग रूप ज्ञानचेतना नहीं मानता। इतना उसकी मान्यता में अन्तर पड़ा]। समाधान सत्यं चापि क्षतेररयाः क्षतिः साध्यस्य न क्वचित् । इयानात्मोपयोगस्य तस्यास्तत्राप्यतुता || १६६६ ॥ सायं यदर्शनाद्धेतोर्निर्जरा चाष्टकर्मणाम् । स्वतो हेतवशाच्छवतेन तडेतः रवचेतजा || १८६७ ॥ है कि[उपयोग केपर में जाने से] स्वोपयोगात्मक ज्ञानचेतना की क्षति है पर साध्या निर्जरादिका की कुछ भी क्षति नहीं है। उपयोग का[उपयोगात्मक ज्ञानचेतना का विषय ] यह आत्मा है और उसका आत्मा में रहने वाली ज्ञानचेतना का][ सम्यक्त्व की शुद्धि के बल से होने वाली] उस [निर्जरादिक] में कारणपना नहीं है॥१६६६। सम्यग्दर्शन के कारण से जो आठ कर्मों की निर्जरा साध्य है। होती है वह स्वयं सम्यक्त्व की शक्ति [शद्धि] के कारण होती है। उस [निर्जरादिक] का कारण स्व में चेतना का रहना नहीं। ___ भावार्थ - भाई यह बात तो तेरी पूर्ण सत्य है कि उपयोग के पर में जाने से स्वोपयोगात्मक ज्ञानचेतना नहीं रहती पर भाई कमाल तो यह है कि उससे ज्ञानीका नुकसान कुछ नहीं होता क्योंकि उस उपयोगात्मक ज्ञानचेतना का संवर निर्जरासे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। चाहे उस ज्ञानी का उपयोग पर में हो या स्व में किन्तु सम्यक्त्व की सत्ता में जो संवर निर्जरा होती है वह तो उपयोग के स्व में रहने से भी होती है और उपयोग के पर में जाने पर भी होती है। संवर निर्जरा का सम्बन्ध सम्यग्दर्शन की शुद्धि से है। अत: जब तक सम्यग्दर्शन है तब तक संवर निर्जरा होती ही रहेगी। अतः हानि कुछ नहीं है। सार यह है कि उपयोगात्मक चेतना की क्षति होती है तो हो- हमारे मोक्षसाध्य में तो कोई अन्तर नहीं आया। शिष्य की शङ्का का समाधान इस प्रकार किया कि तुम्हारी वह धारणा तो गलन थी कि किन्हीं सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानचेतना नहीं होती।लब्धिरूप सबके होती है।हाँ अब इतनी बात ठीक है कि उपयोग के पर में जाने पर उपयोगात्मक चेतना नहीं रहती पर भाई हमारा ध्येय तो मोक्ष है। मोक्ष का कारण संवर निर्जरा है। उसका अविनाभाव सम्यक्त्व की शुद्धि से है। इसलिये उपयोग के पर में जाने से उसे कुछ हानि नहीं होती जैसा कि हम अभी सिद्ध करके आये हैं कि उपयोग का [जानने का] हानि-लाभ से कोई सम्बन्ध नहीं है। विषय अनुसंधान :- शिष्य भव्य है - पात्र है। ऊपर के सब वृतान्त को सुनकर उसका हृदय गद्गद हो गया क्योंकि उसकी शंकाओं का ठीक-ठीक समाधान दिया गया। उसकी एक शंका तो यह थी कि सब सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानचेतना नहीं होती - जिसका उत्तर उसे यह मिला कि सायक्व की उत्पत्ति के समय ज्ञानचेतना को आवरण करने वाले कर्म का क्षयोपशम अविनाभूत है जिसके कारण सब सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानचेतना पाई जाती है और यह बात आगम तथा प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। दूसरी उसकी शंका यह थी कि सम्यग्दर्शन सविकल्प और निर्विकल्प के भेद से दो प्रकार है जिसका यह उत्तर मिला कि सविकल्पक ज्ञान तो होता है पर सम्यक्त्व में ऐसा भेद नहीं है। वह निर्विकल्पक ही होता है। चौथे से सिद्ध तक एक प्रकार का ही होता है। इस प्रकार अपनी दोनों शंकाओं का समाधान सुनकर वह प्रसन्न चित्त से पूछता है कि गुरुवर! मैं यह समझ गया कि सम्यक्त्व को सविकल्प कहना तो आकाशफूल के समान मिथ्या है फिर बहुत से प्रसिद्ध और प्रमाणिक आगमों में जो सम्यक्त्व को सबिकल्प कहा है उसका क्या कारण है? इतनी बात मुझे और समझाइये? ऐसी अब वह शंका उपस्थित करता है:

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