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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
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यथा वा स्वच्छतादर्श प्राकतास्ति निसर्गतः।
तथाप्यस्यास्यसंयोगाद्वैकलारत्यर्थतोऽपिसा ॥ १७९५ ।। अन्वयः - वा यथा आदर्श स्वच्छता प्राकृता अस्ति तथा अस्य [ आदर्शस्य ] आस्य संयोगात् सा वैकृता अपि अर्थतः निसर्गतः अस्ति।
अन्वयार्थ- और जैसे दर्पण में स्वच्छता प्राकृतिक[स्वत:] है-उसी प्रकार उस [दर्पण के संयोग से वह स्वच्छता विकृत अवस्था में भी पदार्थ रूप से स्वतः है [ अर्थात् पदार्थ स्वयं ही अपने पर्याय स्वभाव से विकृत और अविकृत दोनों दशाओं को धारण करता है ।
भावार्थ - जैसे निर्मलता दर्पण में रहती है - उसाँप्रकार मुख का संयोग है निमित्त जिसमें ऐसी अनिर्मलता [मलिनता] भी उसी दर्पण पदार्थ में रहती है। जैसे स्वच्छता स्फटिक मणि में रहती है - वैसे ही डांक है निमित्त जिसमें ऐसा रंगीनपना भी स्फटिक में ही रहता है। दोनों अवस्थाओं को वह स्फटिक ही स्वयं धारण करता है। जैसे ठण्डापना पानी में स्वभाव से रहता है - वैसे अग्नि का संयोग है निमित्त जिसमें ऐसा गरमपना भी पानी में ही रहता है अर्थात् दोनों अवस्थायें वह पदार्थ ही स्वयं धारण करता है और अवस्थान्तर [विकृत अवस्था ] धारण करने पर भी वह कहीं दूसरा पदार्थ नहीं हो जाता - बही का वही रहता है केवल उसमें कुछ विकार आ जाता है। मलिनता आ जाती है। उसी प्रकार यहाँ जो औदयिक आदि भावों का निरूपण करेंगे- वह जीव में ही वास्तव में होने वाला विकार है- मलिनता है और उस आत्मा में ही है। उनके उत्पन्न होने पर आत्मा अनात्मा [जड़ ] तो नहीं हो जाता पर विकारी जरूर होता है।कोई निश्चय की अधिक पकड़वाला द्रव्यार्थिक नय के स्वरूप को ही सत्य माने और इस विकृतपने को वास्तविक न समझेया दर्पण में धुलीवत ऊपर तरता ही समझे तो यह उसकी भूल है। वह तो उसी का परिणमन है। द्रव्यजात भाव है ।हाँ विकृतपना अनित्य भाव है-नित्य स्वभाव भाव नहीं है। पर जैसे स्वभाव भाव उसकी कृति है, उसी प्रकार यह विभाव भाव भी उसी की कृति है। यहाँ कथन पर्यायार्थिक नय का चल रहा है। अतः उसी की सिद्धि कर रहे हैं। वस्तु वास्तव में अनेकान्त रूप है। केवल सामान्य द्रव्यस्वभाव को मानकर पर्याय को कुछ न मानने से एकान्त मिथ्यात्व का महान दोष है ऐसा ग्रन्थकार का यहाँ फरमान है। इसी को अब स्पष्ट करते हैं -
वैकृतत्वेऽपि भावस्य न स्यादर्थान्तरं क्वचित् ।
प्रकृतौ यद्विकारत्वं वैकृतं हि तदुच्यते ॥ १७१६ ।। अन्वयः - भावस्य वैकृतत्त्वे अपि क्वचित् अर्थान्तरं न स्यात् । प्रकृतौ यत् विकारत्त्वं तत् ही वैकृतं उच्यते।
अन्वयार्थ - पदार्थ के विकृतपना होने पर भी कहीं वह दूसरा पदार्थ [ निमित्त रूप] नहीं हो जाता। प्राकृतिक में [स्वभाव में ] जो विकारपना है - वह ही विकृतपना कहा जाता है।
भावार्थ - दर्पण के मुखाकार रूए परिणत होने पर कहीं वह दर्पण ही बदल कर मुखरूप नहीं हो जाता। स्फटिकमणि में विकार आने से कहीं वह फूल नहीं हो जाती। पानी में गर्मी आ जाने से कहीं वह पानी बदलकर आग नहीं हो जाता - उसीप्रकार आत्मा के औदयिक आदि भावों रूप परिणत होने पर भी कहीं बह कर्म या जड़ नहीं हो जाता। आत्मा ही रहता है। विकार होने से कहीं पदार्थ अपने स्वरूप से पलटकर दूसरे पदार्थरूप नहीं हो जाता है किन्तु वह विकार, मात्र उसकी क्षणिक वर्तमान अवस्था जितना है। जो पदार्थ ही बदल जाय तो वह विकार न कहलाय परन्तु दुसराही पदार्थ बन जाय। जो स्वभावसिद्ध पदार्थ है उसका त्रिकालिक स्वरूप तो जैसे का तैसा कायम रहता हुआ मात्र उसकी क्षणिक वर्तमान अवस्था में यह अशुद्धता-विकार उस समय की निज योग्यतानुसार होता है।
__ यथा हि वारुणीपाजादबुद्धि बुद्धिरेव नुः ।।
तत्प्रकारान्तरं बुद्धौ वैकृतत्त्वं तदर्थसात् ॥ १७१७ ॥ अन्वयः - यथा हि वारुणीपानात् नुः बुद्धिः अबुद्धिः एव न स्यात्। बुद्धौ तत्प्रकारान्तरं तत् अर्थसात् वैकृतत्त्वं अस्ति ।
अन्वयार्थ - जैसे मद्य के पीने से जीव की बुद्धि अबुद्धि [जड़-पुद्गल ] नहीं हो जाती है। किन्तु] बुद्धि में जो वह प्रकारान्तर [ दूसरा रूप] हो जाता है - वह ही वास्तव में विकृतपना है।
* देखो श्रीप्रवचनसार सूत्र १८६