Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 525
________________ ५०६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अन्वयार्थ - इसलिये यह चारित्रमोह अपने भेद से दो प्रकार है [ पुद्गलरूप और भावरूप ] पुद्गलरूप पुद्गल द्रव्य है और भावरूप चेतनमय है। भावार्थ - जीव निज शुद्ध आत्मतत्व के अनुसरण को छोड़कर जितने अंश में पराश्रय करता है उतने अंश में चारित्रमोह कर्म के उदय रूप निमित्त में जुड़ने से आत्मा के चारित्र गुण की कषाय रूप वैभाविक अवस्था होती है - उसी से चारित्रमोह के दो भेद हो जाते हैं। एक द्रव्यमोह दूसरा भावमोह। पौद्गलिक चारित्रमोह द्रव्यमोह है और उसके निमित्त में जुड़ने से होनेवाला आत्मा का राग-द्वेष रूप कषाय भाव-भावचारित्रमोह है। द्रव्यचारित्रमोह का स्वरूप अरत्येक मूर्तमद् द्रव्यं नाम्ना रव्यात: स पुद्गलः । सोऽस्ति चारित्रमोहरूपेण संस्थितः ॥१८२६।। अन्वय: - एक मूर्तिमत् द्रव्यं अस्ति। नाम्ना स; पुद्गलः ख्यातः । सः वैकृतः चारित्रमोहरूपेन संस्थितः अस्ति। अन्वयार्थ - एक मूर्तिक द्रव्य है। नाम से वह पुद्गल कहा जाता है। वह पुद्गल विकारी होकर चारित्रमोह रूप से स्थित है। भावार्थ-संसारी जीव के साथ अनन्त कार्माणवर्गणायें बन्धी हैं तथा और भी अनन्त विस्वसोपचय कार्माणवर्गणायें जीव के उसी क्षेत्र में स्थित हैं। जब जीव अपनी अज्ञानता से भावमोह करता है तो निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध के नियमानुसार उन विस्त्रसोपचय कार्मण वर्गणाओं में स्वतः कर्मत्वशक्ति पड़ जाती है और आठ या७कर्म रूप से स्वतः उनका बंटवारा हो जाता है। उनमें एक चारित्रमोह कर्म रूप वर्गणा भी हैं। उनको द्रव्यचारित्रमोह कहते हैं। सम्पूर्ण द्रव्यमाह [ दर्शनमोह चारित्रमोह ] का स्वरूप पृथिवीपिण्डसमानः स्यान्मोहः पौगलिकोऽरिवलः । पुग़ल: स स्वयं नात्मा मिथो बन्धो द्वयोरपि ॥ १८२७ ॥ अन्वयः - अखिल: पौद्गलिकः मोहः पृथिवीपिण्डसमानः स्यात् । सः स्वयं पुद्गल: न आत्मा [ तथापि ] द्वयोः अपि मिथः बन्धः [अस्ति]। अन्वयार्थ - सम्पूर्ण पौद्गलिक द्रव्यमोह [ दर्शनमोह चारित्रमोह ] पृथ्वी पिण्डसमान है। वह स्वयं पुद्गल है - आत्मा नहीं है फिर भी उन दोनों का आत्मा और पुद्गल कर्मों का] परस्पर में बन्थ है। भावार्थ - उन आठ कर्मों में जिस प्रकार एक द्रव्यचारित्रमोह है उसी प्रकार एक द्रव्यदर्शनमोह भी है जो सम्यक्त्व के घात में निमित्त है। अब ग्रन्धकार कहते हैं कि वह दोनों प्रकार का मोह पुद्गल द्रव्य है क्योंकि पुद्गल परमाणुओं का समूह ही वे कार्माणवर्गणा रूप कर्म हैं। और वे ऐसे ही हैं जैसे प्रत्यक्ष ये पृथ्वी के रजकण हैं। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणवाले होने से मूर्त हैं। आत्मा स्पर्श, रस, गन्ध वर्णरहित होने से त्रिकाल अमूर्त है। एक मूर्त है - दूसरा अमूर्त है। फिर भी अनादि से स्वतः दोनों का परस्पर निमित्त नैमित्तिक रूप सम्बन्ध है। यही दोनों का पर्याय में संतान की प्रवाह अपेक्षा से स्वतः सिद्ध बन्ध अनादि सिद्ध है। सम्पूर्ण भावमोह [ दर्शनमोह चारित्रमोह ) का स्वरूप १८२८ से १८३१ तक ४ द्विविधस्यापि मोहस्य पौगलिकस्य कर्मणः । उदयादात्मनो भावो भावमोहः स उच्यते ॥ १८२८॥ अन्वयः - द्विविधस्य अपि पौद्गलिकस्य मोहस्य कर्मण: उदयात् आत्मनः[ यः ] भावः [ जायते ] स: भावमोहः उच्यते। अन्वयार्थ - दो प्रकार के भी पौद्गलिक मोहकर्म के [ दर्शनमोह और चारित्रमोह के ] उदय से [ उदय में जुड़ने से ] आत्मा का जो भाव होता है - वह भावमोद्द कहा जाता है।

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