Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 523
________________ ५०४ चन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अभिलाषी क्या-क्या नहीं करता। पागलवत् अविवेकी होकर डोलता है। यह सब मिथ्यात्व का प्रभाव है। यह नहीं जानता कि ये पदार्थ सातावेदनीय के उदय बिना किसी उपाय से भी नहीं मिल सकते। इसके लिये श्री समयसार जी का बन्य अधिकार पढ़कर बहुत सन्तोष होता है क्योंकि संयोग का धर्म वास्तव में वैसा ही है जैसा वहाँ निरूपित है। उपादान दृष्टि से वह स्वतन्त्र अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में रहता है और संयोगदृष्टि से [निमित्तदृष्टि से ] कर्माधीन है। मिथ्यात्वी के सब उपाय निष्फल मात्र कर्मबन्ध के कारण है। गति औदयिक भाव का उपसंहार सूत्र १८१८ से १८२० तक ३ सियोलाजु ते कावा मोरक्षा अधि वातिछलात् । अर्थादौदयिकास्तेऽपि मोहद्वैतोदयात्परम् ॥१८१८॥ अन्वयः - एतत् नु सिद्धं ते भावाः ये अपि गतिछलात् प्रोक्ता: ते अपि अर्थात् औदयिकाः परं मोहद्वैतोदयात् । अन्वयार्थ - इससे यह बात भली प्रकार सिद्ध हुई कि वे भाव जो गति के छल से [गति पर आरोप करके गतिभावों के नाम से ] कहे गये हैं - वे भी वास्तव में औदायक हैं क्योंकि केवल मोहद्वैत [ दर्शनमोह और चारित्रमोह के उदय से होते हैं [अर्थात् गति औदयिक भाव विकृत मोहज भावों के ही अवान्तरगत हैं ]| भावार्थ - गति औदयिक भावों में यह बतलाया गया है कि नारक, तिर्यञ्च , मनुष्य, देव इन चारों पर्यायों में आत्मा के भाव भिन्न-भिन्न रीति से असाधारण होते हैं। जैसी पर्याय होती है, उसी के अनुसार आत्मा की भाव सन्तति भी ने शङ्गा की थी कि गतिकर्म तो नाम कर्म का भेद होने से अधातिया है, उसमें आत्मा के भावों में निमित्त होने की योग्यता कहाँ से आ सकती है? इस शङ्का के उत्तर में यह कहा गया है कि उस गति कर्म के उदय के साथ ही मोहनीय कर्म का भी उसी जाति का उदय हो रहा है - इसलिये वही वास्तव में आत्मा के गति भावों में निमित्त है। यत्र कुत्रापि वान्या रागांशो बुद्धिपूर्वकः। स स्याद् द्वैविध्यमोहस्य याकाद्वाज्यतमोटयात् ॥ १८१९ ॥ अन्वयः - यत्र कुत्र अपि वा अन्यत्र बुद्धिपूर्वकः रागांश: स: द्वैविध्यमोहस्य पाकात् वा अन्यतमोदयात् स्यात् । अन्वयार्थ - जहाँ कहीं भी अन्यत्र । अर्थात् किसी भी गति में जहाँ कहीं भी बुद्धिपूर्वक रागांश है - वह दो प्रकार के मोह के उदय से [ उदय में जुड़ने से ] या उनमें से किसी एक के उदय से होता है। भावार्थ - उपरोक्त के लिये यह सैद्धान्तिक नियम बताया कि गतिभाव क्योंकि रागभाव है-अत: वे मोहभाव के ही अवान्तर भेद हैं। एवमौदयिका भावाश्चत्वारो गतिसंश्रिताः । केवलं बन्धक रो मोहकर्मोदयात्मकाः ॥ १८२० ॥ अन्वयः - एवं गतिसंश्रिताः चत्वारः औदयिकाः भावाः मोहकर्मोदयात्मका: केवलं बन्धकर्तारः । अन्वयार्थ - इस प्रकार गति आश्रित चार औदयिक भाव मोहकर्म के उदयस्वरूप हैं और केवल बन्ध करनेवाले हैं। भावार्थ - जब ये गति भाव मोह के अवान्तर भेद हैं तो नियम से बन्धसाधक हैं - यह तो स्वतः सिद्ध हो गया। गति भाव का सार जैसे बिल्ली की पर्याय में ही चूहे पकड़ने का भाव होता है। कुने की पर्याय में ही भौंकने का भाव होता है। इनको तिर्यञ्च गति के औदयिक भाव कहते हैं। इसी प्रकार स्त्री में स्त्री जैसा भाव, नारकी में नारकी जैसा भाव, इत्यादिक। ये गति नामा औदयिक भाव हैं। वास्तव में ये मोह भाव के विशेष भेद हैं किन्तु इनको गतिभाव कहने से ये जीवों को स्पष्ट रूप से ख्याल में आ जाते हैं क्योंकि वे गति के अनुसार ही होते हैं। इनको गति भाव कहने में केवल यह ही एक प्रबल कारण है कि ये मोह भाव होते हुये भी गति के अनुसार होते हैं और गति भाव से जीव को झट स्पष्ट रूप से पकड़ में आ जाते हैं। सैद्धान्तिक दृष्टि से ये मोह भाव ही हैं। वास्तव में गति तो अघाति कर्मों का कार्य है।

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