Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 521
________________ ५०२ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रागेवात्रापि दर्शिताः । नित्यं जिनोदितैर्वाक्यैर्ज्ञातुं शक्या न चान्यथा ॥ १८१० ॥ अन्वयः - सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः ये अत्र अपि प्राक् एव दर्शिताः ते नित्यं जिनोदितैः वाक्यैः ज्ञातुं शक्याः च अन्यथा न । अन्वयार्थ सूक्ष्म अन्तरित दूरवर्ती पदार्थ जो यहाँ पहले ही दिखलाये गये हैं वे सदा जिनेन्द्र के कहे हुए वाक्यों द्वारा ही जानने के लिये शक्य हैं और अन्य किसी प्रकार भी नहीं जाने जा सकते। ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी - भावार्थ - ये पदार्थ केवली गम्य हैं और छद्मस्थ को आगम आधार से जानने योग्य हैं। मिथ्यादृष्टि को इनकी श्रद्धा नहीं होती । धर्म-अधर्म, काल, परमाणु आदि को सूक्ष्म पदार्थ कहते हैं क्योंकि ये इन्द्रियों से ग्रहण नहीं होते। रामरावण आदि को अन्तरित पदार्थ कहते हैं अर्थात् जिन पदार्थों में भूत काल का बहुत समय का अन्तर हो या आगे बहुत समय बाद होने वाले हों जैसे राजा श्रेणिक तीर्थङ्कर होंगे अगली चौबीसी दूरवर्ती पदार्थ मेरु पर्वत, स्वर्ग, नदी, द्वीप, समुद्र इत्यादिक कहलाते हैं अर्थात् जिनमें इतनी दूर का अन्तर है कि छास्थ वहाँ पहुँचकर उनका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं कर सकता। किसी आगम में राम रावण आदि को दूरवर्ती और मेरु आदि को अन्तरित भी कह दिया है। दर्शितेष्वपि तेषूच्चैर्जेनैः स्याद्वादभिः स्फुटम् । न स्वीकरोति लानेव मिथ्याकर्मोदयादपि ॥। १८११ ।। अन्वयः - स्याद्वादभिः तेषु उच्चैः स्फुटं दर्शितेषु अपि [ मिथ्यादृष्टिः ] तान् अपि स्वीकरोति एव न मिथ्याकर्मोदयात् । - अन्वयार्थं स्याद्वादी जैनों के द्वारा उनके प्रगट दिखलाये जाने पर भी मिध्यादृष्टि उनको स्वीकार ही नहीं करता क्योंकि उसके मिथ्यात्व कर्म का उदय है। अर्थात यह जीव अवस्तु को वस्तु मानकर मिथ्यात्व कर्म का अनुसरण करता है। जड़ कर्म वैसा कराते हो ऐसा नहीं है वह तो निमित्तमात्र है । ] भावार्थ यद्यपि जैन आगम में वे सूक्ष्मादि पदार्थ स्पष्ट रूप से निरूपित हैं पर मिध्यात्व से जीव उनको नहीं मानता या उस रूप नहीं मानता। ज्ञानानन्दौ यथा स्यातां भुवलात्मनो यदन्वयात् । विनाप्यक्षशरीरेभ्यः प्रोक्तमस्त्यस्ति वा न वा ॥ १८१२ ॥ अन्वयः - ज्ञानानन्दां मुक्तात्मनः अन्वयात् यथा स्यातां यत् अक्षशरीरेभ्यः बिना अपि प्रोक्तं अस्ति । अस्ति वा न बा अस्ति । अन्वयार्थ - [ अतीन्द्रिय ] ज्ञान और [ अतीन्द्रिय ] सुख सिद्ध भगवान के अन्वय रूप से [ निरन्तर धाराप्रवाह रूप से ] जैसे हैं वह और जो बिना इन्द्रिय, शरीर और विषयों के भी कहे गये हैं। वे हैं अथवा नहीं भी हैं। → भावार्थ - अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख का वर्णन चौथी पुस्तक में हो चुका है। उन्हें मिध्यादृष्टि नहीं मानता। न उन्हें आत्मा का स्वभाव मानता है और न सिद्ध में उनकी प्रगटता ही मानता है क्योंकि उसे निथ्यात्व के अविनाभावी इन्द्रिय सुख और ज्ञान का चसका है। वह इसे ही सर्वोत्कृष्ट और हितकर जानता है। स्वतः सिद्धानि द्रव्याणि जीवादीनि किलेति षट् । प्रोक्तं जैनागमे यत्तत्स्याहा नेच्छेदनात्मवित् ॥ १८१३ ॥ अन्वयः - जैनागमे किल यत् स्वतः सिद्धानि जीवादीनि षट् द्रव्याणि इति प्रोक्तं तत् स्यात् अनात्मवित् न इच्छेत् । अन्वयार्थ - जैनागम में निश्चय से जो स्वतः सिद्ध जीवादिक छः द्रव्य जैसे कहे गये हैं वे हैं ऐसा अनात्मवित [ आत्मा को नहीं जाननेवाला मिध्यादृष्टि ] नहीं मानता। - भावार्थ मिथ्यादृष्टि छः द्रव्य, उनके गुण तथा उनका अनादि अनंना स्वतः सिद्ध स्वभाव या विभाव क्रमबद्ध परिणमन नहीं मानता है। नित्यानित्यात्मकं तत्त्वमेकं चैकपदे च यत् । स्याद्वा नेति विरुद्धत्वात् संशयं कुरुते कुदृक् ॥ १८१४ ॥ अन्वयः - यत् एकं तत्त्वं नित्यानित्यात्मकं एकपदे स्यात् । स्यात् न वा । कुदृक् विरुद्धत्वात् संशयं कुरुते ।

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