Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 519
________________ ५०० ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अन्वयः - सर्वे [ मोहभावा: ] जीवमयाः दृष्टान्तः बन्धसाधकः । कस्मात् एकत्र व्यापकः कथं अन्यत्र अव्यापकः । अथ तत्र अपि बुद्धिपूर्वकः मिथ्याभावः गृहीताख्यः मिथ्यार्थाकृतिसंस्थितः केषांचित् संज्ञिनां कथं ? अवान्तर शङ्का सर्वे जीवमया भावा दृष्टान्तो बन्धसाधकः । एकञ व्यापकः कस्मादन्यत्राव्यापकः कथम् || १८०२ ॥ अथ तत्रापि केषांचित्संज्ञिना बुद्धिपूर्वकः । मिथ्याभावो गृहीतारव्यो मिथ्यार्थाकृतिसंस्थितः ॥ १८०३ ॥ अन्वयार्थं जब सब विकाररूप मोहभाव जीवकृत हैं और प्रत्येक मोहभाव बन्ध का साधक है फिर किसी एक जाति का मोह भाव किन्हीं एक जीवों में तो क्यों पाया जाता है और वही मोहभाव दूसरे जीवों में क्यों नहीं पाया जाता ? और उनमें भी बुद्धिपूर्वक मिध्यात्वभाव जो गृहीतमित्व नामवाला है तथा मिथ्यापदार्थ की आकृति रूप है वह किन्हीं संज्ञियों के ही क्यों पाया जाता है सबके क्यों नहीं पाया जाता ? - - 1 भावार्थ - शिष्य का कहना है कि मोहज सब औदयिक विकृत भाव जीवकृत हैं। बन्ध के साधन हैं फिर एक प्रकार का मोहभाव एक गतिवाले जीवों के तो क्यों पाया जाता है और वही मोहभाव दूसरी गतिवाले जीवों में क्यों नहीं पाया जाता? जैसे चूहों को पकड़ने का भाव बिल्ली में ही क्यों पाया जाता है मनुष्यों में क्यों नहीं पाया जाता। शिष्य का ऐसा आशय है कि तिर्यञ्चों के मोहभाव तिर्यञ्चों में ही क्यों पाए जाते हैं मनुष्यों में क्यों नहीं। मनुष्य के मोहभाव मनुष्यों में ही क्यों पाये जाते हैं देवों में क्यों नहीं। देवों के नारकियों में क्यों नहीं इत्यादिक। यह शंका तो उसको अगृहीत मिथ्यात्व के सम्बन्ध में थी कि अगृहीत मिध्यात्व में अनेकों जातियाँ क्यों हैं। अब दूसरा प्रश्न गृहीत मिथ्यात्व के बारे में करता है कि गृहीत मिथ्यात्व तो सब संज्ञियों में पाया जाना चाहिये फिर किन्हीं में क्यों पाया जाता है जैसे सांख्य वस्तु को नित्य ही मानता है तो वह कहता है कि वह नित्य एकान्तरूप मिथ्यात्व भाव उन्हीं में क्यों पाया जाता है. सबमें क्यों नहीं पाया जाता? बौद्ध वस्तु को अनित्य मानता है तो वह पूछता है कि अनित्य एकान्त मिध्यात्व उन्हीं में क्यों पाया जाता है सबमें क्यों नहीं पाया जाता ? किन्हीं की बुद्धि सब धर्मों को एक समान मानने की है यह विनय मिथ्यात्व उन्हीं में क्यों हैं ? इसी प्रकार किसी में मुख्यतया संशय मिध्यात्व, किसी में विपरीत मिध्यात्व, किसी में अज्ञान मिथ्यात्व ऐसा क्यों है ? सारी शंका का सार यह है कि भावमोह के अनेकों टाइप क्यों हैं ? इस शंका का समाधान उसे सैद्धान्तिक दृष्टि से समझाते हैं. - समाधान सूत्र १८०४ से १८०८ तक ५ अर्थादेकविधः स स्याज्जातेरनतिक्रमादिह । लोकासंख्यातमात्रः स्यादालायापेक्षयापि च ॥ १८०४ ॥ अन्वयः - अर्थात् इह सः जाते: अनतिक्रमात् एकविधः च आलापापेक्षया लोकासंख्यातमात्रः अपि स्यात् । अन्वयार्थ - इस लोक में वह मोहभाव वास्तव में तो एक ही प्रकार है क्योंकि अपनी मोह जाति को उल्लंघन नहीं करता है और वही मोहभाव आलाप स्थानों की अपेक्षा से असंख्यात लोकमात्र भी है। अन्वयः इत्यादिक्रमात् । भावार्थ - उसे उत्तर में यह समझा रहे हैं कि मोह जाति को अपेक्षा से तो सब भाव एक प्रकार के ही हैं क्योंकि मोह करने की सबमें समानता है और भिन्न-भिन्न विभाव स्थानों की अपेक्षा असंख्यात भेद भी हैं इसलिये उसके अनेकों टाइप हैं। - आलापोऽप्येकजातियों नानारूपोऽप्यनेकधा । एकान्तो विपरीतश्च यथेत्यादिक्रमादिह ॥ १८०५ ॥ यः एकजातिः आलापः अपि [ स ] अनेकधा नानारूपः [ स्यात् ] यथा इह एकान्त: विपरीतः च अन्वयार्थ जो एक जाति का भी आलाप है वह भी अनेक प्रकार होने से नानारूप है जैसे एकान्त, विपरीत, इत्यादि - क्रम से जान लेना [ अर्थात् मिथ्यात्व के अवान्तर भेदों में जैसे एकान्त मिथ्यात्व है तो वह एकान्त मिध्यात्व भी अपने

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