Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 520
________________ ५०१ द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक अवान्तर भेदों से नानारूप है। इसी प्रकार विपरीत आदि सब समझ लेना। अर्थात् मिथ्यात्व के भेद-प्रभेद आदि अनेकों भेद हैं इसलिये जो भाव एक स्थान में पाया जाता है - वह दूसरे स्थान में नहीं पाया जाता]। अथवा शक्तिलोऽनन्तो मिथ्याभावो निसर्गतः । यस्माटेकैकमाला प्रत्यनन्ताश्च शक्तयः ।।१८०६ ।। अन्वयः - अथवा शक्तितः मिथ्याभावः निसर्गत: अनन्तः यस्मात् एकैकं आलापं प्रति अनन्ताः शक्तयः । अन्वयार्थ - अथवा शक्ति से मिथ्यात्व स्वभाव से ही अनन्त प्रकार है क्योंकि एक-एक आलाप के प्रति अनन्त शक्तियाँ हैं। जैसे एकान्त मिथ्यात्व है। उसमें जो एक ही जाति काएकान्त मिथ्यात्व है- उसमें शक्ति के अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदों से भिन्नता है। किसी के महानतर, महानतम, किसी के अल्प,अल्पतर,अल्पतम इत्यादि। इसी प्रकार सब समझ लेना ] जघन्यमध्यमोत्कृष्टभावैर्वा परिणामिनः । शक्तिभेदात्यावदन्जन्तिप: यकः ।।५८७॥ अन्वयः - वा पुनः शक्तिभेदात् यावत् जघन्यमध्यमोत्कृष्टभावैः परिणामिनः क्षणं पृथक् उन्मजन्ति । अन्वयार्थ - और फिर शक्ति के भेद से कुछ भी जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भावों से एरिणमन करते हुए वे भाव प्रत्येक समय में पृथक् रूप से उदित होते हैं [अर्थात् जो एक ही जाति का एक मिथ्यात्व भाव है वह जिस समय में जितने अविभाग प्रतिच्छेदों की शक्ति संयुक्त है, दूसरे समय में उससे हीनाधिक शक्तियुक्त भी हो सकता है अथवा उसकी जाति भी बदल सकती है। इस प्रकार अनादि से यह धारा चली आ रही है । कारं काळं स्वकार्यवाबन्धकार्य पुनः क्षणात् । निमज्जन्ति पुजश्चान्ये प्रोन्मज्जन्ति यथोदयात् ॥ १८०८ ॥ अन्वयः - स्वकार्यत्वात् कारुं बन्धकार्य अपि कारुं पुनः क्षणात् निमज्जन्ति च पुनः यथोदयात् अन्ये प्रोन्मन्जन्ति। अन्वयार्थ - और अपना कार्य होने से अपने कार्य को करके और बन्ध कार्य को भी करके क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं और उदयानुसार [ उदय का अनुसरण करके ] अन्य भाव उदित होते हैं। भावार्थ - प्रत्येक समय में जैसा भी मोह भाव होता है - वह उसी रूप अपना काम करता है अर्थात् उसका उसी रूप वेदन होता है । उसके अनुसार कर्मबन्ध होता है और अगले समय में फिर नया भाव होता है - उसके अनुसार वेदन कार्य और बन्ध होता है। यह परिपाटी अनादि से चली आ रही है। उधर कर्मोदय अपने कारण से स्ततः उदय होता है। इधर जीव उस निमित्त की सानिध्य में औदयिक भाव स्वतः करता है। ऐसा ही कोई स्वतन्त्र रूप से ही उपादान निमित्त का मेल है पर निमिन उपादान से करवाता है - ऐसा नहीं है। पदार्थ त्रिकाल पर से निरपेक्ष परिणमता है [ देखो श्री पंचास्तिकाय सूत्र ६२ टीका] अथवा ऐसा भी नहीं है कि उदय के अनुसार जीव को डिग्री टू डिग्री विभाव करना पड़ता है। इस प्रकार यहाँ तक मोहभावों की भिन्न-भिन्न जातियों के कारण समझाकर अब मोहभाव का कुछ बुद्धिपूर्वक लक्षण समझाते हैं - बुद्धिपूर्वकमिथ्यात्वं लक्षणाल्लक्षितं यथा । जीवादीनामश्रद्धानं श्रद्धानं वा विपर्ययात् ॥ १८०९ ॥ अन्वयः - बुद्धिपूर्वकमिथ्यात्वं लक्षणात् लक्षितं यथा जीवादीनां अश्रद्धानं वा विपर्ययात् श्रद्धानं । अन्वयार्थ - बुद्धिपूर्वक मिथ्यात्व[अर्थात् मिथ्यात्व का वह लक्षण जो अपने ज्ञान से लक्षणपूर्वक जाना जा सकता है ] लक्षण से इस प्रकार लक्षित है जैसे जीवादिक का[ नौ पदार्थों का] अश्रद्धान होना या विपर्यय रूप श्रद्धान होना। भावार्थ - नौ पदार्थों का श्रद्धान न करना या उलटा श्रद्धान करना यह बुद्धिपूर्वक पिथ्यात्व का पहला लक्षण अथवा दृष्टान्त है।

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