Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 517
________________ ४९८ अर्थादात्मप्रदेशेषु कालुष्यं दृग्विपर्ययात् । तत्स्यात्परिणतिमात्रं मिथ्याजात्यनतिक्रमात् ॥ १७९३ ॥ अन्वयः - अर्थात् दृग्विपर्ययात् आत्मप्रदेशेषु कालुष्मं अस्ति तत् मिध्याजात्यनतिक्रमात् परिणतिमात्रं स्यात् । अन्वयार्थ उपरोक्त का भाव यह है कि दर्शन के विपर्यय के कारण से आत्मप्रदेशों में कलुषता है और वह कलुषता मिथ्या जाति को उल्लङ्घन न करके परिणतिमात्र हैं [ अर्थात् मिध्यात्त्व भाव आत्मा की एक निर्विकल्प मलिनता का नाम है जो सम्यग्दर्शन का विपरीत परिणमन है ] ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी " तत्र सामान्यमात्रत्वादस्ति वक्तुमशक्यता । ततस्तल्लक्षणं वच्मि संक्षेपाद बुद्धिपूर्वकम् ॥ १७९४ ॥ अन्वयः - तत्र सामान्यमात्रत्वात् वक्तुं अशक्यता अस्ति ततः तल्लक्षणं संक्षेपात् बुद्धिपूर्वकं वच्मि । - अन्वयार्थ उस कलुषता में सामान्यमात्रपना होने से [ निर्विकल्पता होने से ] कहने के लिये अशक्यता है। इसलिये उसके लक्षण को संक्षेप से बुद्धिपूर्वक कहता हूँ । - भावार्थ - सामान्य वस्तु भेद रहित होने से शब्द अगोचर होती है। केवल उस मलिनता को समझाने के लिये उसका ज्ञानगोचर लक्षण कुछ कहा जाता है। इस पर कोई यह कहे कि जब वह निर्विकल्प है तो आप उसे क्योंकर कह सकते हैं ? तो उत्तर देते हैं - निर्विशेषसम में सातोरसिद्धता । स्वसंवेदनसिद्धत्वाद्युक्तिस्वानुभवागमैः ।। १७९५ ॥ अन्वयः तत्र निर्विशेषात्मके हेतोः असिद्धता न स्यात् युक्तिस्वानुभवागमैः स्वसंवेदनसिद्धत्वात् । अन्वयार्थ - उस मिध्यात्व रूप कलुषता के निर्विशेषात्मक होने पर [ सामान्यमात्र होने पर निर्विकल्प होने पर ] हेतु के असिद्धता नहीं है क्योंकि वह मिध्यात्व रूप कलुषता युक्ति, स्वानुभव और आगम के बल से स्वसंवेदन सिद्ध है। भावार्थ - यहाँ कोई कहे कि जब वह मिथ्यात्वरूप मलिनता निर्विकल्प है तो उसकी सिद्धि के लिये अनुमान प्रयोग में जो हेतु आप देंगे वह असिद्धहेत्वाभास हो जायेगा क्योंकि निर्विकल्प वस्तु वचन के अगोचर होती है तो उसके उत्तर में ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो ठीक है कि निर्विकल्प वस्तु का बराबर लक्षण नहीं कहा जा सकता पर भाई युक्ति, स्वानुभव और आगम की सहायता से वह निर्विकल्प मलिनता भी स्वसंवेदन ज्ञान में अवश्य अनुभवगम्य हो जाती है। सो अब कुछ विवेचन द्वारा उस मलिनता का अनुभव कराते हैं - सर्वसंसारिजीवानां मिथ्याभावो निरन्तरम् । स्याद्विशेषोपयोगीह केषांचित् संज्ञिनां मनः ॥ १७२६ ॥ अन्वयः - मिथ्याभावः इह सर्वसंसारीजीवां निरस्तरं [ अस्ति ] केषांचित् संज्ञिनां मनः विशेषोपयोगि स्यात् । 1 अन्वयार्थ मिथ्यात्व भाव इस संसार में सब संसारी जीवों के निरन्तर है और किन्हीं संज्ञी जीवों का मन [ उस मिथ्यात्वभाव में ] विशेष उपयोगी है [ अर्थात् कोई संज्ञी जीव अगृहीत मिथ्यात्व के अतिरिक्त गृहीत मिध्यात्व को भी धारण कर लेते हैं । अगृहीत मिध्यात्व को निश्चय मिध्यात्व, सामान्य मिथ्यात्व अबुद्धिपूर्वक मिध्यात्व, निसर्गज मिथ्यात्वादि अनेक नामों से कहा है और गृहीत मिध्यात्व को व्यवहार मिध्यात्व, विशेष मिथ्यात्व बुद्धिपूर्वक मिध्यात्व और नया गृहीत मिथ्यात्व आदि नामों से कहते हैं। वह अगृहीत मिध्यात्व तो सब संसारी जीवों के नियम से पाया ही जाता है और गृहीत मिध्यात्व को कुछ संज्ञी जीव और धारण कर लेते हैं। तेषां वा संज्ञिनां नूनमस्त्यनवस्थितं मनः । कदाचित् सोपयोगि स्यान्मिथ्याभावार्थभूमिषु ॥ १७९७ ॥ अन्वयः - वा तेषां संजिनां मनः नूनं अनवस्थितं अस्ति । अतः कदाचित् मिथ्याभावार्थभूमिषु सोपयोगि स्यात् । - अन्वयार्थ अथवा उन संज्ञी जीवों का मन वास्तव में अनवस्थित है [ अर्थात् उन्हें पदार्थ का निर्णय नहीं है ] अतः कभी कभी मिथ्या भावार्थं भूमियों में [ अर्थात् अन्यमतियों के बताये हुये तत्त्वार्थों में ] उपयोगी होता है [ अर्थात् उनकी वास्तविक रूप से श्रद्धा कर लेता है यह गृहीत मिथ्यात्व है ] |

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