Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 514
________________ द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक ४९५ अन्वयार्थ - पुणों के अनन्तपना होने पर भी वचन व्यवहार के गौरव [बढ़ने] से पूर्वाचार्यों के द्वारा कुछ प्रसिद्ध गुण ही कहे गये हैं। यत्पुनः क्वचित् कस्यापि सीमाज्ञानमनेकधा । मन:पर्ययज्ञानं वा तवयं भावयेत् समम् ।।१७८० ।। अन्वयः - पुनः यत् क्वचित् कस्य अपि अनेकधा सीमाज्ञानं वा अनेकधा मन:पर्ययज्ञानं । तदद्वर्य समं भावयेत् । अन्वयार्थ- और जो कहीं-कहीं किसी जीव के अनेक प्रकार का अवधिज्ञान अथवा अनेक प्रकार का मन:पर्यय ज्ञान होता है। उन दोनों ज्ञानों को समान ही पाना चाहिने आता विशेष निगम इन दोनों ज्ञानों में तो समान रूप से पाये जाते हैं- अन्य ज्ञानों में नहीं पाये जाते] जैसे तत्तटावरणरयोच्चैः क्षायोपशभिकत्ततः । स्याद्यथालक्षितान्दावात् स्यादत्राप्यपरा गतिः ॥ १७८१॥ अन्वयः - तत्तदावरणस्य उच्चैः क्षायोपशमिकत्वतः स्यात। अत्रापि यथालक्षितात् भावात् अपरा गति: स्यात् । अन्वयार्थ - दोनों ही अपने-अपने विशिष्ट क्षयोपशम से होते हैं और यथालक्षित भाव से [ अपने-अपने स्वरूप से ] इनकी अन्यगत्ति हो जाती है। भावार्थ - अवधि और मनःपर्यय ये दो ज्ञान थोड़े समय रहते हैं। या तो होकर छूट जाते हैं या केवलज्ञान हो जाने से नष्ट हो जाते हैं। केवलज्ञान की तरह अनन्तकाल रहने वाले भी नहीं हैं और मति भ्रत की तरह अनादि से भी नहीं हैं। ये तो क्षाणिक ज्ञान हैं। इनकी अन्यगति अवश्य होती है। भतिज्ञान श्रुतज्ञानमेतन्मात्रं सनातनम् । स्याहा तरतमैर्भावैर्यथाहेतूपलनिधसात् ॥ १७८२ ॥ अन्वयः - मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं एतन्मानं सनातनं स्यात् वा यथाहेतूपलब्धिसात् तरतमैः भावः स्वात् । अन्वयार्थ - पतिज्ञान और श्रुतज्ञान - ये दोनों सनातन हैं [ अर्थात् अनादि से है और केवलज्ञान होने तक रहते हैं ] और कारण की प्राप्ति के अनुसार [ अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कारणों की उपस्थिति में ] तरतम भावों से । हीनाधिक रूप से] वर्तते हैं। ज्ञानं यद्याचदर्थानामस्ति वाहकशक्तिमत् । क्षायोपशमिकं सावरित नौटयिकं भवेत् ॥ १७८३॥ अन्वयः - ज्ञानं यत् यावत् अर्थानां ग्राहकशक्तिमत् अस्ति तावत् क्षायोपशमिकं अस्ति। औदयिकं न भवेत् । अन्वयार्थ - ज्ञान जो जितना पदार्थों को ग्रहण करने की शक्तिरूप है [ उधाड़ रूप है ] उतना क्षायोपशमिक है - औदयिक नहीं है। अस्ति द्वेधावधिज्ञानं हेतोः कुत्तश्चिदन्तरात् ।। ज्ञानं स्यात्सम्यग्बधिरज्ञानं कुत्सितोऽवधिः ।। १७८४ ।। अन्वयः - कुत्तश्चित् अन्तरात् हेतोः अवधिज्ञानं द्वधा अस्ति। सम्यगवधिः ज्ञानं स्यात् कुत्सितः अवधि: ज्ञानं स्यात्। अन्वयार्थ - किसी अन्तरङ्ग कारण से [अर्थात् मिथ्यात्वभाव की सहचरता-असहचरता से ] अवधिज्ञान दो प्रकार है। सम्यक् अवधिज्ञान और कुत्सित अवधिज्ञान। अस्ति द्वेधा मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च स्याद् द्विधा ।। सम्यइमिथ्याविशेषाभ्या ज्ञानमज्ञानमित्यपि ॥ १७८५॥ अन्वयः - मतिज्ञानं द्वधा अस्ति च श्रुतज्ञानं द्विधा स्यात् अपि सम्यमिथ्याविशेषाभ्यां ज्ञानं अज्ञानं इति। अन्वयार्थ - पतिज्ञान दो प्रकार है और श्रुतज्ञान भी दो प्रकार है। सम्यक् मिथ्या विशेषणों से ज्ञान और अज्ञान हैं [ अर्थात् इन सम्यग्ज्ञानों को ज्ञान कहते हैं और मिथ्याज्ञानों को अज्ञान कहते हैं ]।

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