Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 511
________________ ४९२ ग्रन्श्चराज श्री पञ्चाध्यायी यत् पुनः केवलज्ञानं व्यक्तं सर्वार्थभासकम् । स एव क्षायिको भातः कृत्रजरखावरणक्षयात् ॥ १७६३॥ अन्वयः - पुनः यत् सर्वार्थभासकं व्यक्तं केवलज्ञानं [अस्ति] सः एवं कृत्स्नस्वावरणक्षयात् क्षायिकः भावः। अन्वयार्थ - और जो सम्पूर्ण पदार्थों का प्रकाशक, व्यक्ता पर्याय में प्रगट केवलज्ञान है - वह ही अपने आवरण के पूर्ण नाश से क्षायिक भाव है। नोट- अपने आवरण के नाश से केवलज्ञान प्रगट हआ कहना निमित्त का कथन है। वास्तव में जीव स्वद्रव्य के उत्कृष्ट अवलंबन के बल द्वारा स्वयमेव पूर्ण पुरुषार्थ रूप परिणत हुआ तब प्रतिपक्षी कर्म का नाश उसकी योग्यता से स्वयं हो जाता है। जैसे अंधेरे को हटाना नहीं पड़ता। प्रकाश करते ही अंधेरा उत्पन्न नहीं होता उसका नाम अंधकार का नष्ट होना है वैसे जीव ने अपने में उग्र पुरुषार्थ द्वारा यथाख्यात चारित्र प्रगट किया उसी समय स्वयमेव कर्म का निमित्त छूट जाता है। अकर्मरूप बन जाता है एसा सच्चा अर्थ है। दार्मास्टी समिद्धानि मूलमानतया पृथक । अष्टचत्वारिंशच्छतं कर्माण्युत्तरसंज्ञया || १७६४ ॥ अन्वय: - मूलभात्रतया पृथक् अष्टौ कर्माणि प्रसिद्धानि । उत्तरसंज्ञया अष्टचत्वारिंशत् शतं कर्माणि । अन्वयार्थ - मूलमानपने से भिन्न-भिन्न आठ कर्म प्रसिद्ध हैं और उत्तर भेद संज्ञा से १४८ कर्म हैं। उत्तरोत्तरभेटैश्च लोकासंख्यालमात्रकम । शक्तितोऽनन्तसंझं च सर्वकर्मकटम्बकम् ॥ १७६५॥ अन्वयः - च सर्वकर्मकदम्बकं उत्तरोत्तरभेदैः लोकासंख्यातमात्रकं च शक्तितः अनन्तसंज्ञम् । अन्वयार्थ - और सब कर्म समूह उत्तर भेदों से असंख्यात् लोकमात्र हैं और शक्ति से अनन्त प्रकार हैं। तत्र घातीनि चत्वारि कर्माण्यन्वर्थसंज्ञया । घातकत्वाद् गुणानां हि जीवस्यैवेति वाकरमतिः ।। १७६६॥ अन्वयः - तत्र चत्वारि कर्माणि अन्वर्थसंज्ञया घातीनि हि जीवस्य गुणानां घातकत्वाद् एव इति वाक्स्मृतिः । अन्वयार्थ - उनमें चार कर्म अन्वर्थ संज्ञा से घातियाँ हैं क्योंकि वे जीव के गुणों के घातक हैं - ऐसा आगम वाक्य है।[यह उपचरित असद्भुतनय का कथन आगम शास्त्र की अपेक्षा से है] ततः शेषचतुष्कं स्यात् कर्माघाति विवक्षया । गुणानां घातकाभावशक्तेरप्यात्मशक्तिमत ॥ १७६७|| अन्वयः - ततः शेषचतुष्कं कर्म आत्मशक्तिमत् अपि गुणानां घातकाभावशक्तेः अघाति स्यात् । अन्वयार्थ - घाति कर्मों से बाकी के बचे हुए चार कर्म अपनी-अपनी शक्ति को रखते हुए भी सम्यक्त्वादि आत्मा के अनुजीवी गुणों के घातने की शक्ति के अभाव की विवक्षा से अधाति कहलाते हैं। भावार्थ - यद्यपि वेदनीय. नाम गोत्र और आय इन चारों ही कर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियां जैसेकि वेदनीय कर्म में आत्मा के अव्याबाध प्रतिजीवी गुण के घात में निमित्तपने की, नामकर्म में सक्ष्मत्व, गोत्रकर्म में अगुरुलघुत्व और आयुकर्म में अवगाहस्व प्रतिजीवी गुणों के घात में निमित्सपने की निजशक्तियाँ हैं तथापि ज्ञानादि अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त न होने के कारण इनको अघाति कहा है। आगम में अघाति कर्म की ३ परिभाषाएँ देखने में आई हैं - (१)जो आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त न हों। अथवा (२)जो आत्मा के प्रतिजीवी गुणों के घात में निमित्त हों। अथवा (३) जिनके निमित्त से जीव को परवस्त का संयोग-वियोग हो। एवमर्थवशान्नूनं सन्त्यनेके गुणाश्चितः । गत्यन्तरात्स्यात्कर्मत्वं चेतनावरणं किल || १७६८॥ अन्वयः - एवं अर्थवशात् नूनं चितः अनेके गुणा: सन्ति। गत्यन्तरात किल चेतनावरणं कर्मत्वं स्यात् ।

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