Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 509
________________ ४९० ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी सम्यक्त्व का और अनन्तानुबन्धी के अभाव का अविनाभाव है। इसलिये भी इसको दर्शन को मोहित करनेवाली प्रकृतियों में यहाँ गिनाया है। इसप्रकार स्वतंत्र निमित्तनैमित्तिक भाव का ज्ञान कराने के लिये ३ मिध्यात्व की और ४ अनन्तानुबन्धी ७ प्रकृति दर्शन को मोहित करनेवाली कही हैं। [ निमित्त की मुख्यता से कथन होता है कार्य नहीं। कार्य तो स्वयं निज निज शक्तिरूप उपादान से ही होता है तब उपस्थित को निमित्तमात्र कारण कहा जाता है ऐसा समझ चाहिये। ] दृमोहस्योदयादस्य मिथ्याभावोऽस्ति जन्मिनः । स स्यादौदयिको नूनं दुर्वारो दृष्टिघातकः ॥ १७५२ ॥ अन्वयः - मोहस्य उदयात् अस्य जन्मिनः मिथ्याभावो अस्ति। सः नूनं औदयिकः स्यात् [ च] दुर्वारः दृष्टिघातकः [ अस्ति ] अन्वयार्थ - दर्शनमोह के उदय से [ उदय में जुड़ने से ] इस जीव के मिथ्याभाव है। वह मिथ्यात्व भाव निश्चय से औदायिक है। कठिनता से निवारण करने योग्य है और दृष्टि [ श्रद्धा ] का घातक है। भावार्थ- जीव के शुद्ध सम्यग्दर्शन गुण का विपरीतस्वादू हो जाना ही मिथ्यादर्शन भाव है। इसमें मोहनीय निमित्त है। इसलिये यह औदयिक भाव है। यह महान् पुरुषार्थं द्वारा ही स्वभाव परिणमन रूप बदला जा सकता है अर्थात् जब तक जीव विपरीत अभिप्राय रहित सर्वज्ञ वीतराग कथित तत्त्वार्थों का श्रद्धान भावभासनरूप से प्रगट न करें; परम पारिणामिक स्वभाव का आश्रय निर्विकल्प रूप से न करे तबतक मिथ्यात्व टलकर सम्यक्त्व नहीं होता इसीलिये यह दुरि है। श्रद्धा को घात करना इसका कार्य है। - अरित प्रकृतिरस्यापि दृष्टिमोहस्य कर्मणः । शुद्धं जीवस्य सम्यक्त्वं गुणं नयति विक्रियाम् ॥ १७५३ ॥ अन्वयः - अपि अस्य दृष्टिमोहस्य कर्मणः प्रकृतिः अस्ति [ यत् ] जीवस्य शुद्धं सम्यक्त्व गुणं विक्रियां नयति । अन्वयार्थ और इस दर्शनमोह कर्म की प्रकृति [ स्वभाव ] हैं कि [ निजस्वरूप से च्युत होने वाले ] जीव का शुद्ध सम्यक्त्व गुण विक्रिया को प्राप्त हो जाता है। [ विकारी हो जाता है। विभावरूप हो जाता है। सम्यक्त्व का विभावरूप होना ही मिध्यात्त्व है ] | यथा मद्यादिपानस्य पाकाद बुद्धिर्विमुह्यति । श्वेतं शंखादि यद्वस्तु पीतं पश्यति विभ्रमात् ॥ १७५४ ॥ तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तूयादिह । अपि यावदनात्मीयमात्मीयं मनुते कुट्टक ॥। १७५५ ॥ अन्वयः - यथा मद्यादिपानस्य पाकात् बुद्धिः विमुह्यति । यत् शंखादि श्वेत वस्तु [ तत् ] विभ्रमात् पीतं पश्यति तथा तु इह दर्शनमोहस्य कर्मणः उदयात् यावत् अनात्मीयं [ अस्ति ] [ तत् ] अपि कुद्क् आत्मीयं मनुते । अन्वयार्थ जैसे मद्यादि के पान के पाक से बुद्धि विमोहित हो जाती हैं और फिर जो शंखादि श्वेत [ सफेद ] वस्तु है उसको विभ्रम से पीत [ पीली ] देखता है। उसीप्रकार दर्शनमोह कर्म के उदय से अर्थात् उसका अनुसरण - करने से इस लोक में भी जो कुछ अनात्मीय [ पर ] है उसको ही आत्मीय [ स्व ] मिध्यादृष्टि मानता है । भावार्थ - सामान्य शुद्ध आत्मा स्व है [ उपादेय है ] शेष सब द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म पर है और संयोगी पदार्थ और नैमित्तिक निज पर्याय पर है [ है है ] ऐसा सम्यक्च का विषय है किन्तु मिथ्यादृष्टि अपने मिथ्यात्व भाव के कारण इस पर को ही स्व मानता है अर्थात् हेय तत्त्व को उपादेय मानता है और स्व से अनभिज्ञ रहता है जैसे कोई मद्यादि के नशे में बुद्धि की विपरीतता के कारण भूल से सफेद शंख को पीला देखता है। ऐसा ही यह दृष्टिदोष से पर को ही स्व श्रद्धता है। - चापि लुम्पति सम्यक्त्वं दृमोहस्योदयो यथा । निरुणद्ध्यात्मनो ज्ञानं ज्ञानस्यावरणोदयः || १७५६ ॥ अन्वयः - चापि यथा दुइमोहस्य उदयः सम्यक्त्वं लुम्पति [ तथा ] ज्ञानस्य आवरणोदयः आत्मनः ज्ञानं निरुणद्धि ।

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