Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 501
________________ ४८२ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी असाधारण भावों के ५ भेद लोकासंख्यातमात्रा: स्युर्भावाः सूत्रार्थविस्तरात् । तेषां जातिविवक्षायां भावाः पंच यथोदिताः ॥ १७२९ ॥ अन्वयः - सूत्रार्थविस्तरात् लोकासंख्यातमात्राः भावाः स्युः । तेषां जातिविवक्षायां पञ्च भावाः यथोदिताः । अन्वयार्थ सूत्र के अर्थ के विस्तार से असंख्यात लोक प्रमाण भाव हैं। उनकी जाति की विवक्षा में पाँच भाव इस प्रकार कहे गये हैं। - भावार्थ भाव तो असंख्यात् प्रकार के हैं पर सूत्रकारों ने उनको जाति की अपेक्षा संग्रह करके पाँच भेदों में बांट दिया है। उन सूत्रों का यदि विस्तृत अर्थ किया जाय तो उन ५ भावों के ५३ भेद होते हैं और उन ५३ के भी असंख्यात् लोकप्रमाण भेद हो सकते हैं। ५ भावों के नाम तथा उनके ५३ भेद तत्रौपशमिको नाम भावः स्यात्क्षायिकोऽपि च । क्षायोपशमिकश्चेति भावोऽप्यौदयिकोऽस्ति नुः ॥ १७३० ॥ पारिणामिकभावः स्यात् पंचेत्युद्देशिताः क्रमात् । तेषामुत्तरभेदाश्च त्रिचाशदितीरिताः 11 १७३१ ॥ अन्वयः - तत्र नुः औपशमिकः नाम भावः । क्षायिकः अपि स्यात् च क्षायोपशमिकः इति औदयिकः भावः अपि अस्ति । पारिणामिकः भावः स्यात् इति क्रमात् पंच उद्देशिताः च तेषां उत्तरभेदाः त्रिपंचाशत् इति ईरिताः । अन्वयार्थ उनमें आत्मा का औपशमिक नामक भाव है। क्षायिक भी है। क्षायोपशमिक भी है और औदयिक भाव भी है और पारिणामिक भाव है। इसप्रकार क्रम से पाँच कहे गये हैं। उनके उत्तर भेद ५३ कहे गये हैं । [२ औपशमिक + ९ क्षायिक २१ औदयिक + ३ पारिणामिक ५३ आत्मा के असाधारण भाव || + = अब क्रमशः इनके लक्षणों का निर्देश करते हैं: औपशमिक भाव का लक्षण कर्मणां प्रत्यनीकानां पाकस्योपशमात्स्वतः | यो भावः प्राणिनां स स्यादौपशमिकसंज्ञकः || १७३२ ॥ अन्वयः - प्रत्यनीकानां कर्मणां पाकस्य स्वतः उपशमात् प्राणिनां यः भावः सः औपशमिकसंज्ञकः स्यात् । अन्वयार्थ विरोधी कर्मों के [ दर्शनमोह और चारित्रमोह के ] उदय के स्वतः [ उपादान की स्वतन्त्र स्वकाल की योग्यता से ] उपशम से प्राणियों के जो भाव होता है वह औपशमिक नामवाला है। - - - भावार्थ - स्वतः शब्द का ऐसा भाव है कि कर्म स्वतः अपनी योग्यता से उपशम होता है जीव का किया हुआ नहीं जीव उस समय अपने में अपने स्वतन्त्र पुरुषार्थ से औपशमिक भाव करता है उधर कर्म अपने स्वकाल की योग्यता से स्वतः उपशम होता है। समय दोनों का एक है पर एक-दूसरे के कारण से नहीं होते हैं। - क्षायिक भाव का लक्षण यथास्वं प्रत्यनीकानां कर्मणां सर्वत: क्षयात् । जालो यः क्षायिको भावः शुद्धः स्वाभाविकोऽस्य सः ॥ १७३३ ॥ अन्वयः - प्रत्यनीकानां कर्मणां यथास्वं सर्वतः क्षयात् यः भावः जातः सः अस्य [ आत्मन: ] शुद्धः स्वाभाविक क्षायिकः [ भावः ] अन्वयार्थ - विरोधी कर्मों के [घातिकर्मों के ] अपनी योग्यता से सर्वथा क्षय से जो भाव उत्पन्न होता है - वह इस [ आत्मा ] का शुद्ध स्वाभाविक क्षायिक भाव I - भावार्थ - यथास्वं शब्द का ऐसा भाव है कि कर्म स्वतः अपनी योग्यता से क्षय होता है जीव का किया हुआ नहीं। जिस समय जीव अपने स्वतन्त्र पुरुषार्थं से शुद्ध स्वाभाविक भाव करता है योग्यता से स्वतः क्षय होता है। समय दोनों का एक है। - उसी समय कर्म अपने स्वकाल की

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