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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
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अन्वयार्थ - इस गति नाम कर्म के उदय से अथवा दैव से [शरीर और आङ्गोपाङ्ग आदि नामकर्म के उदय से ] किसी एक शरीर को प्राप्त करके वहाँ आत्मा उदयात्मक चित[ उस गति के अनुसार] भावों को करता है।[वे भाव गति औदयिक भाव के नाम से प्रसिद्ध हैं। क्योंकि गति के ४ भेद हैं। इसलिये उन भावों के भी ४ भेद हैं। ___ भावार्थ - ग्रन्थकार कहते हैं कि ८ कर्मों में एक अघातिया नाम कर्म है। उसका एक गति नामा भेद है। उसके उदय से तथा साथ में शरीर आदि कर्म के उदय से जीव चारों गतियों में से किसी एक गति का शरीर प्राप्त करता है और फिर उस गति [शरीर ] के अनुसार उन वैभाविक मोह-राग-द्वेषरूप भावों को करता है। जैसे बिल्ली के शरीर
के चहे पकड़ने का भाव करता है। कुत्ते की पर्याय पाकर भौंकने का भाव करता है। इसी प्रकार सब तिर्यंचों का समझ लेना। उसीप्रकार मनुष्य गति में मनुष्याकार भाव करता है जैसे स्त्री में स्त्री जैसे, पुरुष में पुरुष जैसे, नपुंसक में नपुंसक जैसे - ये सबको अनुभव सिद्ध हैं। उसीप्रकार देवगति में देवाकार, नरक गति में नारकी जैसे भाव करता है। गति के अनुसार जो ये विभाव भाव होते हैं उनको औदयिक गतिभाव कहते हैं। क्योंकि गतियाँ ४ हैं इसलिये ये गति औदायिक भाव भी ४ प्रकार के माने गये हैं।
गति औदयिक भाव का स्वरूप १७४३-१७४४ यथा तिर्यगवस्थायां तद्वद्या भातसंततिः ।
तनावश्यं च नान्यत्र लत्पर्यायानसारिणी ॥ १७४३ ॥ अन्वयः - यथा तिर्यगवस्थायां तद्वत या भावसंततिः तत्र अवश्यं च अन्यत्र न [यतः सा भावसंततिः] तत्पर्यायानुसारिणी[भवति ।
अन्वयार्थ - जैसे तिर्यंच अवस्था में उस तिर्यंच गति के अनुसार जो भावों की सन्तति है - वह वहाँ अवश्य है - अन्यगति में नहीं है [क्योंकि वह भावसन्तति ] उस पर्याय के अनुसार होती है। जैसे भौंकने का भाव कुत्ते में तो अवश्य होता ही है और अन्यगतिवाले जीव के नहीं ही होता है। इसीप्रकार सब समझ लेना ।
एवं दैवेऽथ मानुष्ये नारके वषि स्फुटम् ।
आत्मीयात्मीयभावाश्च सन्त्यसाधारणा इव ॥ १७४४|| अन्वयः - एवं दैवे मानुष्ये अथ नारके वपुषि स्फुटं आत्मीयात्मीयभावा: असाधारणाः इव सन्ति।
अन्वयार्थ - इसीप्रकार देव, मनुष्य अथवा नारक शरीर में प्रगटपने अपनी-अपनी गति के योग्य भाव होते हैं। वे असाधारण [विशेष ] गुणों के समान उस गति के असाधारण भाव हैं।
भावार्थ - गति शरीर को नहीं कहते और न आत्मा और शरीर की मिली हुई अवस्था को कहते हैं किन्तु गति तो आत्मा की एक पर्याय का नाम है। यहाँ केवल जीव के पाँच भावों का कथन चल रहा है। औदयिक जीव का भाव है। उस औदयिक भाव के २१ भेद हैं। उनमें ४ गतिरूप भाव हैं। आत्मा की मनुष्याकार विभाव परिणति को मनुष्य गति [ मनुष्य पर्याय ] कहते हैं। तिर्यंचाकार परिणति को तिर्यंच गति [ तिर्यंच पर्याय ] कहते हैं, देवाकार परिणति को देवगति [ देवपर्याय] और नारकी के आकार परिणति को नरक गति या नारकपर्याय कहते हैं। मनुष्य गति में मनुष्यपने के अनुसार ही भाव होते हैं। यहाँ रागभावों से आशय है। मनुष्य गति में मनुष्यपने के अनुसार रागभाव होता है; तिर्यंच में तिर्यंच के अनुसार जैसे बिल्ली को चूहे पकड़ने का भाव, कुत्ते को भौंकने का भाव, बन्दर को घूरने का भाव। उसीप्रकार देव में देव जैसे और नारकी में नारकी में नारकी जैसे। जिसप्रकार असाधारण [विशेष ] गुण जीव के ज्ञान दर्शन आदि जीव में ही होते हैं। पुद्गल के स्पर्श , रस आदि पुद्गल में ही होते हैं, उसीप्रकार ये गति नामा औदयिक भाव जिस गति के हैं - वे उसी गति में होते हैं - दूसरी में नहीं।
शंका ननु देवादिपर्यायो नामकर्मोदयात्परम् ।
तत्कथं जीवभावस्य हेतुः स्याद् घातिकर्मवत् ॥ १७४५ ।। अन्वयः - ननु देवादिपर्याय: परं नामकर्मोदयात् [ भवति तत् [ नामकर्म घातिकर्मवत् कथं जीवभावस्य हेतुः स्यात्।