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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
'द्रव्यात्मलाभमानहेतुकः पारिणामः ' अर्थात् जो वस्तु के अपने निजस्वरूप की प्राप्ति मात्र में कारण स्वरूप है वह पारिणामिक भाव है। उसी को त्रिकालिक द्रव्यरूप स्वभावभाव कहते हैं। [ सर्वार्थसिद्धि अ. २ संस्कृत टीका ]। जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय है और शेष चार भाव पर्यायार्थिक नय का विषय है। पारिणामिक भाव भी निश्चय पारिणामिक और व्यवहार पारिणामिक अथवा अशुद्ध पारिणामिक कहा है [ विस्तार चर्चा के लिये देखें श्री समयसार सूत्र ३२० की श्री जयसेन आचार्यकृत टीका ] ।
स्वरूप कथन की प्रतिज्ञा
इत्युक्तं लेशतस्तेषां भावानां लक्षणं पृथक् । -
इतः प्रत्येकमेतेषां व्यासात्तदूपमुच्यते ॥ १७३७ ॥
अन्वयः - इति तेषां भावानां लेशतः पृथक् लक्षणं उक्तं इतः एतेषां प्रत्येकं व्यासात् [ यत् ] रूपं तत् उच्यते । अन्वयार्थ - इसप्रकार उन पाँच प्रकार के भावों का संक्षेप में भिन्न-भिन्न लक्षण कहा । अब आगे इन पाँचों ही भावों में से प्रत्येक भाव का विस्तार से जो स्वरूप है वह कहा जाता है।
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औदायिक भाव के २१ भेद तथा उनके स्वरूप कथन की प्रतिज्ञा भेदाश्चौदयिकस्यास्य सूत्रार्थादेकविंशतिः । चतस्रो गतयो नाम चत्वारश्च कषायकाः ॥ १७३८ ॥ त्रीणि लिङ्गानि मिथ्यात्मक चाज्ञाममात्रकम् । एकं वाऽसंयतत्त्वं स्यादेकभेकारत्यसिद्धता ॥ १७३९ ॥ लेश्या: षडेव कृष्णाद्याः क्रमादुद्देशिता इति ।
तत्स्वरूपं प्रवक्ष्यामि नापं नातीव विस्तरम् || १७४०
अन्वयः - च अस्य औदयिकस्य सूत्रार्थात् एकविंशतिः भेदाः । चतस्त्रः गतयः नाम, च चत्वारः कषायकाः, , त्रीणि लिङ्गानि, एकं मिथ्यात्वं च एकं अज्ञानमात्रकं वा एकं असंयतत्त्वं स्यात्, एका असिद्धता अस्ति, षड् एव लेश्या: कृष्णाद्याः, इति क्रमात् उद्देशिताः । [ अहं ] तत्स्वरूपं न अल्पं न अतीव विस्तरं प्रवक्ष्यामि ।
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अन्यवार्थ और इस औदयिक भाव के सूत्र के अर्थ अनुसार २१ भेद हैं। ४ गति नामक भाव और ४ कषाय भाव, ३ लिंग भाव, एक मिथ्यात्व भाव, एक अज्ञानमात्र भाव, एक असंयम भाव, एक असिद्धत्व भाव और ६ लेश्या भावकृष्णादिक। इस प्रकार क्रम से २१ भाव कहे गये हैं। मैं उनके स्वरूप को न संक्षेप से और न बहुत विस्तार से [ अर्थात् मध्यम रीति से ] कहूँगा।
औदयिक आदि ५ भावों का सामान्य निरूपण समाप्त हुआ।
गति औदयिक भाव
( सूत्र १७४१ से १८२० तक ८० ) विषय परिचय
जीव के २१ औदायिक भावों में जो गति नामा औदयिक भाव कहा गया (१) जीव के गतिविषयक मोहजभाव जो बंधहेतुक औदयिक भाव हैं। (२) जो मोहजभाव न होकर अघातिकर्म में नामकर्म और नामकर्म अन्तर्गत गति कर्म तथा अंगोपांग नामकर्म तो
निमित्त हैं और जीव का अमूर्तत्त्व प्रतिजीवी गुण का अशुद्ध परिणमन नैमित्तिक है। वह औदयिक गति रूप जीव का उपादान परिणाम है जो बन्ध का कारण नहीं है। गति नामकर्म के सामने जीव की मनुष्याकारादि विभाव अर्थ पर्याय और विभाव व्यंजन पर्याय में स्थूलपने का व्यवहार संसार दशा तक चालू रहता है वह गति औदयिक भाव जीव में है जो चौदहवें गुणस्थान तक रहता है और बन्ध का कारण नहीं है। और मोहज औदयिक भाव ही बन्ध का कारण है।
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वह दो प्रकार का होता है ।