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द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक
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न स्यात्सम्यक्त्वप्रध्वंसरचारित्रावरणोदयात् ।
रागेणैतावता तत्र इमोहेजलधिकारिणा ।। १६८६ ।। अर्ध - चारित्रावरण के उदय से सम्यक्त्व का नाश नहीं होता। इस कारण से राग का उस दर्शनमोह में अधिकार नहीं है।
भावार्थ - उस राग से चारित्रमोहनीय का बन्ध उदय आदि होता है और चारित्रमोह के उदय से सम्यग्दर्शन का घात नहीं होग।राग हा अधिकारावाने में तो आत चारित्रमोह का बन्ध उदय-उत्कर्षण-अपकर्षण तो उस राग से होता है पर दर्शनमोह में उस राग का कछ अधिकार नहीं है अर्थात दर्शनमोह का उस राग के कारण बन्थ उदय उत्कर्षण-अपकर्षण नहीं होता है। अब इस कथन को आगम प्रमाण से सिद्ध करते हैं :
यतश्चास्त्यागमात्सिद्भमेतद् द्दमोहकर्मण:।।
नियतं स्वोदयाद्वन्धप्रभति न परोदयात ॥ १६८७॥ अर्थ - क्योंकि यह बात आगम से सिद्ध है कि दर्शनमोह कर्म का बन्धादि नियम रूप से स्व-उदय में [अपने दर्शनमोह के उदय में ही होता है। पर - उदय में [चारित्रमोह के उदय में दर्शनमोह का बन्धादि नहीं होता है।
भावार्थ - किन्हीं प्रकृतियों का बन्ध अन्य प्रकृतियों के उदय होते हुये होता है उनको परोदयबन्धप्रकृति कहते हैं। किहीं प्रकृतियों का बन्ध अपने ही उदय में होता है उनको स्वोदयबन्ध प्रकृति कहते हैं और किन्हीं प्रकृतियों का बन्ध स्वोदय तथा परोदय के होते हुये होता है उनको स्वपरोदयबन्ध प्रकृति कहते हैं। दर्शनमोह स्वोदयबंध प्रकृति है। इसलिए दर्शनमोह का बन्ध दर्शनमोह के उदयरहते ही होगा।दर्शनमोह का उदय नष्ट होने पर फिर वह नहीं बन्ध सकती। इसलिये भी चौथे से दर्शनमोह का उदय न रहने से चारित्रमोह के उदय के कारण से होनेवाले राग से दर्शनमोह नहीं बंध सकता। यहाँ तक के सब कथन से यही सिद्ध किया है कि चौथे, पाँचवें, छठे में सम्यग्दृष्टि के बुद्धिपूर्वक राग का सम्यक्त्व से या उसके निमित्त से दर्शनमोह से ) भी कुछ सम्बन्ध नहीं है। इसलिये उस राग के कारण सम्यग्दर्शन को सविकल्प सम्यग्दर्शन कहना भूल है।
शङ्का लनु चैतमनित्यत्वं सम्यक्त्वाद्यद्वयस्य यत् । स्वतः स्वस्योदयाभावे तत्कथं स्यादहेतुतः ॥ १६८८॥ न प्रतीमो वयं चैतद् द्दमोहोपशमः स्वयम् ।
हेतुः स्यात् स्वोदयस्योच्चैरुत्कर्षस्याथवा मनाक ।। १६८९ ॥ शङ्का - इस प्रकार तो [ अर्थात् यदि यह राग दर्शनमोह के बंध-उदय-उत्कर्षण-अपकर्षण का कारण नहीं है ] जो आदि के दो सम्यक्त्व के औपशमिक और भायोपशमिक सम्यक्त्व के] अनित्यपना है, स्वत: अपने उदय के अभाव में वह बिना कारण के कैसे हो सकता है [क्योंकि बिना कारण के अपना उदय अपने आप तो हो नहीं सकता और बिनादर्शनमोह के उदय हुये आदि के दो सम्यक्त्व में अनित्यता आ नहीं सकती]॥१६८८॥और यह हमें विश्वास नहीं है कि दर्शनमोह का उपशम स्वयं हो जाता हो अथवा अपने उदय का कारण भी वह स्वयं कर्म ही हो अथवा थोड़ा या अधिक उत्कर्ष-अपकर्ष का कारण भी स्वयं वह कर्म ही हो [इसलिए यह राग ही दर्शनमोह के बन्ध-उदय-उत्कर्षअपकर्ष में कारण है।
भावार्थ - उपशम सम्यक्त्व और क्षायोपशम सम्यक्त्व दोनों ही अनित्य हैं अर्थात् दोनों ही छूट कर मिथ्यात्व रूप में आ सकते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व ही एक ऐसा है जो होकर फिर छूट नहीं सकता है। शिष्य पहले दो सम्यक्त्व के
इस सूत्र का अर्थ अन्य सब टीकाओं में और प्रकार है। हमारी राय में पूर्वापर प्रकरणानुसार यही अर्थ ठीक बैठता है। विद्वान् विचार करें। इसके उत्तर में ग्रन्थकार वही उत्तर देंगे जिसका आज आध्यात्मिक सन्त सत्पुरुष श्री कानजी महाराज प्रचार कर रहे हैं।