Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 492
________________ द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक ४७३ जानकारी की जा सके ? यदि होतो कपा वह भी समझाइये। शिष्य का आशय ऐसा है कि क्या जीव सर्वथा अखण्ड चेतना परिणमन रूप है जैसाकि समझा कर आये हैं या वह चेतना किसी प्रकार खण्ड रूप भी है? समाधान सूत्र १७०८ से १७४० तक ३३ उच्यतेऽजन्तधर्माधिरुदोऽप्येकः सचेतनः । अर्थजातं यतो यावत्स्यादनन्तगुणात्मकम् ॥ १७०८॥ अन्वयः - सचेतनः एकः अपि अनन्तधर्माधिरूढ़: उच्यते यतः यावत् अर्थजातं अस्ति तावत् अनन्तगुणात्मकं स्यात्। अन्वयार्थ - वह जीव अखण्ड चेतना की अपेक्षा एक प्रकार का होने पर भी अनन्तधर्माधिरूढ़ (अनन्तगुणयुक्त) कहा जाता है क्योंकि जितना भी पदार्थसमूह है - सब अनन्तगुणात्मक है। भावार्थ - उत्तर में ग्रन्थकार समझाते हैं कि भाई ! हम एकान्ती नहीं हैं - अनेकान्ती हैं। जीव को अखण्ड भी मानते हैं और खण्ड भी मानते हैं। जैसाकि हम तुम्हें दूसरी पुस्तक में समझाकर आये हैं कि जगत् का प्रत्येक पदार्थ सत् रूप है और सत् अस्ति-नास्ति आदि ४ युगलों से गुम्फित है। उसमें एक युगल एक-अनेक भी है - जिसका अर्थ हम आपको समझा आये हैं कि पदार्थ अखण्ड होने के कारण एक है और अनन्त गुण पर्याय भेद होने के कारण अनेक है। जीव भी एक पदार्थ है। अन्तर केवल इतना ही है जीव चेतन पदार्थ है - शेष अचेतन पदार्थ हैं पर चेतन-अचेतन कोई भी पदार्थ हो- सब भेदाभेदात्मक हैं। जीव भी भेदाभेदात्मक है। सो अभेद की दृष्टि से तो इसका स्वरूप हम तुम्हें समझा चुके हैं। अब भेद दृष्टि से निरूपण करते हैं। __ अब यह बताते हैं कि जिस प्रकार से वह जीव अखण्ड चेतना परिणामन की अपेक्षा जानने योग्य है जैसा कि सूत्र ९६० से १७०६ तक बतलाकर आये हैं - उसी प्रकार वह जीव चेतना के अनन्त गुण भेद करके भी जानने योग्य है जैसाकि अब सूत्र १७०७ से १९०९ तक निरूपण करेंगे ताकि उसकी विशेष जानकारी हो सके। अभिज्ञानं च तत्रापि ज्ञातव्यं तत्परीक्षकैः । वक्ष्यमाणमपि साध्य युक्तिस्वानुभवागमात् ॥ १७०९।। अन्वयः - च तत्रापि तत्परीक्षकै: अभिज्ञानं ज्ञातव्यं वक्ष्यमाणं अपि युक्तिस्वानुभवागमात् माध्यं । शब्दार्थ - अभिज्ञानं ज्ञातव्यं - विशेष रूप से जानकारी करनी चाहिये। __अन्वयार्थ - और उसमें भी उस जीव की परीक्षा करने वालों के द्वारा ( अर्थात् उस जीव को विशेष रूप से जानने के इच्छुक पुरुषों द्वारा) उस अनन्तगुणात्मक जीव में विशेष रूप से जानकारी करनी चाहिये। आगे कहे जानेवाला अनन्त गुणभेद भी जीव में युक्ति, स्वानुभव और आगम से सिद्ध करने योग्य है ( समझने योग्य है)। भावार्थ - भाई ! सामान्य ज्ञान से विशेष ज्ञान बलवान् होता है। अखण्ड चेतना परिणमन की अपेक्षा जीव का ज्ञान करना सामान्य ज्ञान है और गुण पर्याय भेद करके उसके प्रत्येक अवयव को जानना विशेष ज्ञान है- विशेष से उसका विशद स्वरूप ( नक्शोनिगार ) भली-भांति झलकने लग जाता है। अतः जिनकी इच्छा जीव को परीक्षापूर्वक भली-भाँति जानने की हो - उन्हें चेतना के अनन्त गुण पर्याय भेद करके फिर प्रत्येक गुण और उसकी भिन्न-भिन्न प्रत्येक पर्याय का ज्ञान भी करना चाहिये।जिस प्रकार वह अखण्ड जीन ज्ञानचेतना और अज्ञानचेतना की अपेक्षा बराबर अनुभव सिद्ध है - उसी प्रकार गुण पर्याय भेद से भी वह जीव बराबर युक्ति और अनुभव से सिद्ध है। उस चेतना के अनन्त गणभेद करके प्रत्येक गणका नाम. उसका लक्षण और उसके कितने प्रकार के परिणमन यह सब जानना चाहिये जैसे चेतना में ज्ञान', दर्शन, सम्यक्त्व', चारित्र', सुख, वीर्य', इत्यादिक अनन्त गुण हैं - इस प्रकार तो उनके नाम सीखे। स्वपर को साकार जानने वाला ज्ञान है, सबका निराकार रूप से प्रतिभासक दर्शन है,स्व की स्व रूप से और पर की पर रूप से श्रद्धा करने वाला सम्यक्त्व है, पराश्रय की श्रद्धा और पर में लीनता रूप पराचरण के त्यागपूर्वक स्व में रमने वाला चारित्र है, आहादस्वरूप आत्मिक परिणाम सुख है, अपनी परिणति में पुरुषार्थस्वरूप वीर्य गुण है, इत्यादि - इस प्रकार उनके लक्षण सीख्ने। फिर वह ज्ञान गुण सामान्य में एकरूप रहता हुआ भी विशेष में ८ प्रकार का परिणमन करता है अर्थात् उसकी मति', श्रुत', अवधि,मनःपर्यय', केवल, कुमति, कुश्रुत', विभंग - ये आठ पर्यायें होती हैं और पहले गुणस्थान से सिद्ध तक कहाँ-कहाँ कौम-कौनसी पर्यायें होती हैं - यह सीखे।

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