Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 491
________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक सूत्र १७०७ से २०० आत्मा के औदयिक आदि ५३ भावों का वर्णन मंगलाचरण परम पुरुष निज अर्थ को साध गये गुणचन्द । आनन्दामृत चन्द्र को, वन्दत हूँ सुख कन्द ॥ विषय परिचय १. आप जानते हैं कि ग्रन्थकार सूत्र ७९८-७९९-८०० में जीव के सामान्य स्वरूप का निरूपण कर आये हैं जो द्रव्यार्थिक नय का विषय है। जीव का सामान्य स्वरूप सब जीवों में एक जैसा है और त्रिकाल एकरूप है। यह जीव के निरूपण की प्रथम पद्धति है। उसी जीव के विशेष स्वरूप को, जो पर्यायार्थिक नय का विषय है, निरूपण करने की प्रतिज्ञा ग्रन्थकार ने सूत्र ९५८ में की थी। इस दृष्टि से जीव का निरूपण अखण्ड परिणमन की अपेक्षा किया जाता है। इसको चेतना कहते हैं। इस अपेक्षा से सब जीवों का परिणमन तीन प्रकार है - ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना। ज्ञानियों के ज्ञानचेतना की मुख्यता है और अज्ञानियों का परिणामन तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतना रूप ही होता है। सो इसका विशद स्पष्टीकरण ग्रन्थकार ने सूत्र ९६० से १७०६ तक किया। यह जीव निरूपण की दूसरी पद्धति है। जीव का तीसरा निरूपण खण्ड परिणमन की अपेक्षा किया जाता है। जीव के अनन्त गणभेद करके प्रत्येक गुण का परिणमन पहले से चौदहवें गुणस्थान तक और सिद्ध में किस-किस रूप से होता है - यह औदयिक आदि ५ भावों के ५३ भेदों द्वारा बतलाया जाता है। इससे जीव के सम्पूर्ण अन्तरङ्ग भावों का ख्याल आ जाता है और जीव को अपने स्वरूप का साङ्गोपाङ्ग स्पष्ट दिग्दर्शन हो जाता है । सो अब ग्रन्थकार जीव तत्त्व का निरूपणा पर्यायार्थिक नय से गुणभेद करके सूत्र १७०७ से १९०९ तक २०३ सूत्रों में इस सम्पूर्ण पुस्तक में करेंगे। २+३. उपर्युक्त और ३ नम्बर के निरूपणको यूं भी कह सकते हैं कि जीन भेदाभेदात्मक वस्तु है। उसका परिणमन भी भेदाभेदात्मक होता है। अभेद परिणमन की अपेक्षा निरूपण सत्र १६० से १७०६ तक किया और अब शेष ग्रन्थ में भेद परिणमन की अपेक्षा निरूपण करेंगे। विशेष वस्त निरूपण के अवान्तरगत ही यह निरूपण है जो सूत्र ७६९ से प्रारम्भ हुआ था। भूमिका (सूत्र १७०७ से १७२६ तक २०) शङ्का जनु चिलमात्र एवास्ति जीतः सोऽपि सर्वथा । कि तदाद्या गुणाश्चान्ये सन्ति तत्रापि केचन ॥ १७०७ ॥ अन्वयः - ननु सर्व: अपि जीवः सर्वथा चिन्मात्रः एव अस्ति किंतत्रापि तदाद्याः केचन अन्ये गणाः च शब्दार्थ - सर्वः अपि जीवः - सभी जीव, जीव मात्र । सर्वधा - एकान्त रूप से। चिन्मात्रः = अखण्ड चेतना रूप। अन्वयार्थ - क्या जीवमात्र अखण्ड चेतना रूपही है या उस जीव में गुणभेद करके चेतना आदिक(चेतन स्वरूप) अन्य गुण भी हैं ( गुण भेद होने पर भी जीव के सब गुण चेतन हैं और अजीव के अचेतन हैं। भावार्थ - शिष्य का यह आशय है कि महाराज! आपने सूत्र ९६० से १७०६ तक जो जीव का अखण्ड चेतना परिणमन रूप से निरूपण किया - क्या बस पर्यायष्टि से जीव को इसी रूप समझा जाता है या कोई ऐसी पद्धति भी है कि यह चेतना का अखण्ड परिणमन बना रहे और इसके और खण्ड करके - गणभेद करके जीव की विशेष

Loading...

Page Navigation
1 ... 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559