Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 493
________________ ४७४ ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी इसी प्रकार दर्शन, गुण, रूप से एक प्रकार रहता हुआ भी, पर्याय में ४ प्रकार से परिणमन करता है - चक्षु', अचक्षु', अवधि' और केवल - अर्थात् दर्शन गुण में ४ पर्यायें होती हैं और पहले से सिद्धतक कहाँ-कहाँ किसप्रकार है - यह सीखे। उसी प्रकार सम्यक्त्व गुण सामान्य में एकरूप रहता हआ भी विशेष में प्रकार परिणमन करता है-मिथ्यावर सासादन',मिश्र',औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व',अति सम्यक्त्व(श्रद्धा) गुण की ६ पर्यायें होती हैं। पहले गुणस्थान में पहली ही होती है, दूसरे में दूसरी, तीसरे में तीसरी, चौथे-पाँचवें-छठेसातवें में पिछली तीन में से कोई एक, आठवें-नवें-दशवें-ग्यारहवें में क्षायिक अथवा औपशमिक सम्यक्त्व में से कोई एक, बारहवें से सिद्ध तक केवल एक क्षायिक । इस प्रकार उसका परिणमन सीखे। उसी प्रकार चारित्र, गण रूप से एक प्रकार का रहता हआ भी, पर्याय में प्रकार का परिणमन करता हैअसंयम', संयमासंयम', सामायिक', छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्प्राय', यथाख्यात'। इनमें पहले चार गुणस्थानों में असंयम ही होता है - पाँचवें में संयमासंयम ही होता है- छठे-सातवें में अगले तीन में से पहले दो या वें में सामायिक वा छेदोपस्थापना होता है। दशवें में सुक्ष्मसाम्प्राय तथा ग्यारहवें से चौदहवें तक यथाख्यात होता है और सिद्ध में इस गुण की पर्याय को सम्यक्त्व में ही समाविष्ट कर देते हैं। इसीप्रकार सुख गुण, सामान्य में एक जैसा होने पर भी, विशेष में स्वभाव विभाव रूप दो प्रकार परिणमता है। विभाव में भी साता-असातादो अवान्तर भेद । स्वभाव में भीएकदेशावावबौधे से बाहयतका और सर्वदेशस्वभाव तैरहवें से सिद्ध तक। इसप्रकार जीव के अनन्त गुणों के नाम, उनके लक्षण, उनके परिणमन (पर्याय भेद) गुरुगम से बराबर यथायोग्य सीखे। इसका फल यह होगा कि जीव का साङ्गोपाङ्ग विशद रूप से दिग्दर्शन होगा। सामान्य (ज्ञान) से विशेष (ज्ञान) बलवान होता है। जीव को अधिक सन्तुष्टि मिलती है। फिर एक बात और कहते हैं कि पहले तो यह सब चर्चा आगम के आधार पर सीखनी चाहिये। फिर युक्ति से (लक्षण प्रमाण नय निक्षेप से) निर्णय करना चाहिये कि जैसा हमने सीखा है - बराबर वैसा ही है-फिर अपने अनुभव से मिलाना चाहिये क्योंकि स्वयं जीव तो है ही। अपने में अनन्त गुण भी हैं। उनका परिणमन भी हो रहा है। सो जैसाजैसा परिणमन याद किया है- मेरे में ठीक उसी के अनकल है या नहीं। मेरे अनुभव में ऐसा आता है या नहीं-बराबर मिलान करे और जिस गण की निर्मल पर्याय अपने को प्रगट नहीं है- उसका पुनः-पुनः विचार करके अपनी आत्मा से निर्णय करे कि वह बात बराबर उतरती है या नहीं। तब जीव का परिचय होगा। आप कहेंगे- इतनी सरदर्दी कौन करेगा। भाई | बसाती की दुकान में कितने सौदे हैं - क्या सबके नाम, कार्य, दाम, घटना-बढ़ना याद नहीं रहता - क्या डॉक्टर को कितनी दवाइयों के नाम, उनके गुण, उनका प्रयोग याद नहीं रहता। जिसकी रुचि उसकी मुख्यता। वीर्य का झुकाव रुचि के अनुसार हुआ करता है। आज तक पर में रुचि रही है। रुपया कमाने के लिये ज्ञान का भरसक उपयोग करता है और यहाँ कहता है कि कौन सरददी करे। भाई। जिसे अपना दुख मिटाना है। संसार-सागर को काटना है। आत्मा को अनन्त सुखधाम मोक्षरूप करना है - उसे ठीक रूप से तत्वनिर्णय करना ही पड़ेगा। यह जभी तक बाझमालूम हा रहा है जब तक इसका रुचि जागृत नहीं हुई है। जब आत्मा की रुचि जागृत हो जायेगी तो फिर परिश्रम मालमन देगा। लीलामात्र से ही ज्ञानी सीख जाते हैं। यह ध्यान रहे कि महर अपने अनुभव से ही लगती है। बिना अनुभव सत्-असत् की विशेषता रहित पागलवत् बकवास है। चाहे ग्यारह अङ्ग तक क्यों न पढ़ लिये जायें। भले ही थोड़ा अभ्यास क्यों न हो - वह अनुभव सिद्ध होना चाहिये। आजकल अभ्यास तो बहुत बढ़ गया है पर विचार बहुत कम हो गया है किन्तु अनुभव बिना सब शून्य है। यही बात मूल सूत्र में है कि जीव इन गुणभेदों को आगम, अनुभव से निर्णय करे। आप मोक्षमागी हों - यही हमारा आशीर्वाद है और यही हमारा इस टीका परिश्रम का उद्देश्य है। सफल हो- ऐसी भावना है। अब इसी कथन को ग्रंथकार के मुखारविन्द से सुनिये। वह इस प्रकार है - तद्यथायथं जीवस्य चारित्रं दर्शनं सुरवम् । ज्ञान सम्यक्त्चभित्येते स्युर्विशेषगुणाः स्फुटम् ॥ १७१० ॥ अन्वयः - तद्यथायथं-जीवस्य चारित्रं, दर्शनं, सुखं, ज्ञान, सम्यक्त्वं इति एते स्फुट विशेषगुणाः स्युः।

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