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ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
विषय में ही पूछता है कि दर्शनमोहनीय का जिस समय उपशम अथवा क्षयोपशम हो रहा है --फिर किस कारण से दर्शनमोहनीय कर्म का उदय हो जाता है जो कि सम्यक्त्व के नाश का हेतु है। स्वयं दर्शनमोहनीय ही अपने उदय में स्वयं तो कारण हो नहीं सकता और बिना कारण दर्शनमोहनीय का उदय हो नहीं सकता। मोह भाव उस समय आत्मा में है नहीं। उस राग के अतिरिक्त अन्य कोई विभाव है ही नहीं। अतः मेरी समझ में तो यही आता है कि वह राग ही उस दर्शनमोह के बन्ध और उदय का कारण है क्योंकि यह भी मेरी समझ में नहीं आता कि कर्म बिना किसी आत्मभाव के कारण के स्वयं ही कभी उदय हो जाता हो, कभी स्वयं उपशम हो जाता हो, कभी स्वयं क्षयोपशम हो जाता हो अथवा स्वयं उसमें उत्कर्षण-अपकर्षण हो जाता हो। इन कार्यों के लिये उसे कोई आत्मभाव तो कारण चाहिये ही?
समाधान सूत्र १६९० से १६९७ तक ८ नै यतोऽनभिज्ञोऽसि मुदगलाचिंत्यशक्तिषु ।
प्रतिकर्म प्रकृत्यादौ नारूपासु वस्तुतः || १६९० ॥ __ अर्थ - ऐसा नहीं है [अर्थात् राग उस दर्शनमोह के उदय का कारण नहीं है और तुम ऐसा इसलिये कहते हो] क्योंकि तुम पुद्गल कर्मों की उदय-उपशम-क्षय-क्षयोपशम आदि अचिन्त्य १० शक्तियों में तथा उनमें प्रत्येक कर्म के प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभाग आदि नाना रूपों में वस्तुतः अजान हो।
भावार्थ - जिस प्रकार जीव एक स्वतंत्र चेतन द्रव्य है। वह स्वयं स्वतंत्र रूप से अपने शुभ-अशुभ शुद्ध भाव किया करता है। इसी प्रकार पुद्गल भी एक स्वतंत्र द्रव्य है। वह भी स्वतः स्थायी रहता हुआ बदला करता है। वह भी अपने अचेतन (जड़) भावों को किया करता है। उदय-बन्ध-उपशम आदि जो कर्म की १० अवस्थायें हैं - उनको वह भी स्वयं अपनी परिणभन शक्ति से स्वकाल की योग्यता से बिना किसी अन्य कारण के कभी अपने उदय रूप, तो कभी अपनी उपशम पत्ती कमी अपनी क्षयोपशम रूप दशाको पलटा करता है। भाई तम जीव की तो शभाशभादि भावों के करने की शक्ति जानते हो पर पुद्गल भी एक द्रव्य है - वह भी अपने नाना प्रकार के भावों को प्रति समय किया ही करता है। यह तुम नहीं जानते। आओ हम तुम्हें समझाते हैं :
अरत्युदयो यथानादेः स्वतश्चोपशमस्तथा ।
उदयः प्रशमो भूयः स्यादर्वागपुनर्भवात् ॥ १६९१॥ अर्थ – जिस प्रकार [दर्शनमोह का] अनादि काल से स्वत: उदय है उसी प्रकार उपशम भी स्वतः होता है। इसी प्रकार उपशम के पीछे उदय और उदय के पीछे उपशम बार-बार होता रहता है। यह उदय और उपशम की श्रृंखला जब तक मोक्ष नहीं होता, बार-बार होती रहती है।
भावार्थ - अनादि का उदय है। बताओ तो सही - वह किस कारण से है। किसी कारण से नहीं। इसी प्रकार जब उसमें उपशम कीयोग्यता का स्वकाल आता है तो स्वयं उपशम हो जाता है। जब उसमें स्वयं क्षयोपशमकीयोग्यता का स्वकाल आता है तो स्वयं क्षयोपशम हो जाता है। जब पुनः उदय की योग्यता का स्वकाल आता है तो उदय हो जाता है। प्रत्येक पदार्थ बिना पर की सहायता के बिलकुल अकेला ही स्वतंत्र स्वकाल की योग्यता से परिणमन किया ही करता है। इसलिये भाई दर्शनमोह का उदय भी स्वतः है और उसका उपशम क्षयोपशम भी स्वतः ही है।
अथ गत्यन्तरादोषः स्यादसिद्धत्वसंज्ञकः।
दोषः स्यादनवस्थात्मा दुरोिऽन्योन्यसंश्रयः ॥ १६९२ ।। अर्थ - और दूसरी गति होने से [ अर्थात् ऐसा न मानकर राग के द्वारा दर्शनमोह का उदयादि मानोगे तो] दुर्निवार असिद्धत्वसंज्ञक दोष आयेगा। दुर्निवार अनवस्थात्मक दोष होगा तथा दुर्निवार अन्योन्याश्रय दोष होगा। __ भावार्थ - (१) यदि एक का कारण दूसरा होना ही चाहिए ऐसा मानोगे तो उस कारण के लिये दूसरा कारण, और फिर उस कारण के लिये और दूसरा कारण इस प्रकार कहीं अन्त न होने से अनवस्था दोष आयेगा।(२) यदि परस्पर एक-दूसरे को एक दूसरे का कारण मानोगे तो अन्योन्याश्रय दोष आयेगा ( तथा )(३)वह हो तो उसकी सिद्धि