Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 482
________________ ४६४ ग्रन्थराज श्रीपञ्चाध्यायी गया कि फिर सम्यक्त्व सविकल्प [ सरागी ] न रहा किन्तु केवल एक प्रकार का निर्विकल्प [ शुद्ध भाव रूप] ही रहा और चौथे से सिद्ध तक एक प्रकार का ही रहा तथा जब राग का सम्बन्ध सम्यक्त्व से सिद्ध नहीं हुआ तो उसकी अविनाभावी ज्ञानचेतना से भी उसका कुछ सम्बन्ध न रहा क्योंकि ज्ञानचेतना ज्ञान गुण की पर्याय है और सम्यक्त्व से अविनाभूत है।सोई कहते हैं अर्थात् ग्रन्थ के प्रारम्भ में की गई शिष्य की दोनों शङ्काओं का उत्तर यहाँ लाकर समाप्त करते हैं: उपसंहार तरमात्सम्यवत्वमेकं स्यादर्थात्तल्लक्षणादपि । सद्ययावश्यकी तत्र विद्यले ज्ञानचेतना ।। १६९८ ॥ अर्थ - इसलिये अर्थ की अपेक्षा से अथवा उसके लक्षण की अपेक्षा से भी सम्यक्त्व एक ही है [ सविकल्पनिर्विकल्प या व्यवहार-निश्चय दो प्रकार नहीं है और वह एक प्रकार इस कारण से है कि उस सम्यक्व के सद्भाव में ज्ञानचेतना नियम से होती है। ऐसा नहीं है कि सविकल्पवाले के ज्ञानचेतना न हो और निर्विकल्प वाले के ही हो और इसलिए सम्यक्च के दो भेद किये जाते हों]] भावार्थ - शङ्काकार ने राग के निमित्त से सम्यक्त्व के सराग और वीतराग ऐस दो भेद किये थे। आचार्य महाराज कहते हैं कि राग का चारित्र से सम्बन्ध है सम्यक्त्व से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये न तो सराग और वीतराग ऐसे सम्यक्त्व के दो भेद ही हैं और न ज्ञानचेतना का अभाव ही है। सम्यग्दर्शन एक ही है। उसका स्वानुभूति लक्षण है।ज्ञानचेतना सम्यक्त्व से अविनाभूत है। इसलिये वह सम्यग्दर्शन के साथ अवश्य पाई जाती है। इसलिये चाहे सराग अवस्था हो-चाहे वीतरागअवस्था हो-ज्ञानचेतना सम्यक्त्व के साथ अवश्य ही होगी। इस सूत्र द्वारा साध्य की सिद्धि करके विषय का उपसंहार किया है। शिष्य ने सूत्र १५८९ से १५१४ तक ६ सूत्रों में जो यह कहा था कि सम्यक्त्व सविकल्प [व्यवहार निर्विकल्प [निश्चय ] दो प्रकार का है तो उत्तर दिया कि ऐसा नहीं है तथा जो उसने यह कहा था कि सविकल्पक सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना नहीं है तो उत्तर दिया कि ज्ञानचेतना सबके है। ___ अगली भूमिका - शिष्य की दोनों शङ्काओं का यद्यपि पूर्ण समाधान कर दिया गया किन्तु फिर भी वह अपनी दोनों शाओं के बारे में पुन: प्रश्न करता है और कहता है कि गुरु महाराज ! क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तो मलिन है। उसमें तो राग है। इसलिए क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तो सविकल्प है और औपशमिक सम्यक्त्व में प्रतिपक्षी कर्म की सत्ता है इसलिये यह भी मलीन है, हाँ। क्षायिक सम्यक्त्व निर्विकल्प [वीतराग] है। इस प्रकार सम्यक्व के सविकल्प और निर्विकल्प दो भेद ठीक रहेंगे। तथा ज्ञानचेतना के बारे में महाराज! क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के तो। ज्ञानचेतना नहीं है क्योंकि उनके प्रतिपक्षी कर्म की सत्ता है और क्षायिक के है ? अर्थात् उसने घुमा-फिरा कर पुनः वही सम्यक्त्व के सविकल्प और निर्विकल्प दो भेद कर दिये तथा उसीप्रकार सविकल्प सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना का नहोना कहा। उसने अपनी दोनों चली आई शङ्काओं को नया रूप देकर पुनः उपस्थित कर दिया। अब इनका समाधान १७०३ तक ४ सूत्रों में करते हैं : मिश्रौपशमिकं नाम क्षायिकं चेति तत्रिधा । स्थितिबन्धकतो भेदो न भेटो रसबन्धसात् ॥ १६९९।। अर्थ – वह सम्यक्त्व मिश्र[क्षायोपशमिक ] औपशमिक और क्षायिक इस प्रकार तीन प्रकार है। इन तीनों में जो कुछ भेद है वह केवल स्थितिबन्धकृत भेद है। रस बन्ध [अनुभाग बन्ध] की अपेक्षा से भेद नहीं है। भावार्थ - भाई! इन तीनों सम्यक्त्व में तत्त्वार्थश्रद्धान में या आत्मानुभव में कुछ अन्तर नहीं है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में जो मलिनता है - वह तो इतनी सूक्ष्म है कि केवलज्ञान गम्य है। उस व्यक्ति के अनुभव में वह नहीं आती। नहीं है किन्तु अबुद्धिपूर्वक है। वह तो करणानुयोग का विषय है। उसका केवल यही आशय है कि केवलियों ने अपने दिव्यज्ञान में उसे भी देखा है। वह चौथे से सातवें तक रह सकती है पर उसका यह मतलब नहीं कि उनके अनुभव में कुछ मोह भाव आ रहा है। इसलिये तीनों सम्यग्दृष्टियों के रस में ( अनुभाग में - फल में - वेदन । में) अन्तर नहीं है किन्तु स्थिति में अन्तर है। क्षायिक सम्यक्त्व का अनुभव अक्षय है। उसकी कोई स्थिति नहीं है। कभी

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