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द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक
है क्योंकि उसमें उपयोग एक ही आत्मपदार्थ पर रहता है। पदार्थान्तर पर नहीं जाता। शेष समय में जेय परिवर्तन किया करता है इसलिये सविकल्प है। इन तीन अपेक्षाओं से ज्ञान को सविकल्प कहते हैं।(४) विकल्प का चौथा अर्थ राग है। यह चारित्र गुण का विभाव परिणमन है। चारित्र गुण के राग सहित परिणमन को सविकल्प या सराम चारित्र कहते है जो दसवें तक है और चारित्र गुण के विकल्प रहित परिणमन को निर्विकल्प या वीतराग चारित्र कहते हैं जो ग्यारहवें बारहवें में है।(५) पाँचवां विकल्प शब्द का अर्थ बुद्धिपूर्वक राग है जो पाया तो पहले से छठे तक जाता है पर यहाँ मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से चौथे, पाँचवें, छठे गुणस्थान का राग ही ग्रहण किया गया है। इन ५ अर्थों में विकल्प शब्द का प्रयोग होता है। सम्यग्दर्शन को विकल्पात्मक कहना भारी भूल है।
प्रश्न २४५ - केवलियों का ज्ञान निर्विकल्पक किस प्रकार है?
उत्तर - छयस्थों के चारों ज्ञान सविकल्प अर्थात् उपयोगसंक्रान्ति सहित हैं और केचली का ज्ञान निर्विकल्प अर्थात् उपयोग संक्रान्ति रहित है। इस अपेक्षा केवलज्ञान निर्विकल्पक है। . प्रश्न २४६ - केवलज्ञान सविकल्पक किस प्रकार है?
उत्तर - [देखने वाले] दर्शन का निज लक्षण निर्विकल्प अर्थात ज्ञेयाकार रहित है और ज्ञान का निज लक्षण सविकल्प अर्थात् ज्ञेयाकार सहित है। इस अपने लक्षण से प्रत्येक ज्ञान सबिकल्पक है। केवलज्ञान में भी स्व पर सेयाकारपना रहता है। अत: वह भी सविकल्पक है।
प्रश्न २४७ - छास्थ का ज्ञान सविकल्पक किस प्रकार है और निर्विकल्पक किस प्रकार है?
उत्तर -- केवलज्ञान निर्विकल्प अर्थात् उपयोगसंक्रान्ति रहित है और छद्मस्थ का ज्ञान सविकल्प अर्थात् उपयोगसंक्रान्ति सहित है। इस अपेक्षा तो छयस्थों के चारों ज्ञान सविकल्पक हैं। दूसरे उपयोगात्मक स्वात्मानुभूति में उपयोग क्योंकि एक ही निज शुद्ध आत्मा में रहता है और अर्थ से अर्थान्तर का परिवर्तन [जेय परिवर्तन ] नहीं करता - इस अपेक्षा स्वोपयोग के समय में तो छद्मस्थों का ज्ञान निर्विकल्पक है और अन्य समय में सविकल्पक है।
प्रश्न २४८ - ज्ञान सविकल्प है या नहीं?
उत्तर :- ज्ञान एक तो अपने ज्ञेयाकार रूप लक्षण से सविकल्प है, दूसरे उपयोगसंक्रान्ति लक्षण से सविकल्प है, तीसरे ज्ञेयपरिवर्तन से सविकल्प है। पर 'ज्ञान-राग रूप ही हो जाता हो' इस अपेक्षा सविकल्पक कभी नहीं है।
प्रश्न २४९ – सम्यग्दर्शन सविकल्पक है या नहीं?
उत्तर :- सम्यग्दर्शन तो सम्यक्त्व गुण का निर्विकल्प [शुद्धभाव रूप] परिणमन है। चौथे से सिद्ध तक एक रूप है। यह किसी प्रकार भी सविकल्पक नहीं है क्योंकि यह कभी रागरूप नहीं होता है।
प्रश्न २५० - चारित्र सविकल्पक है या नहीं?
उत्तर - पहले गुणस्थान में तो चारित्र गुण का परिणमन सर्वथा राग रूप ही है। अत: वह तो सविकल्प ही है। चौथे में अनन्तानुबंधी अंश को छोड़ कर चारित्र का शेष अंश सविकल्प है - रागरूप है। पाँचवें-छठे में जितना बुद्धि अबुद्धिपूर्वक राग है उतना चारित्र का परिणमन विकल्परूप है। सातवें से दसवें तक जितना अबुद्धिपूर्वक राग है उतना चारित्र का परिणमन विकल्प रूप है। चारित्र वास्तव में सविकल्पक है पर जहाँ जितना चारित्र राग रहित है वहाँ उतना वह भी निर्विकल्पक है। चारित्र भी सर्वथा सविकल्पक हो-ये बात नहीं है। स्वभाव से तो चारित्र भी निर्विकल्पक ही है और जितना मोक्षमार्गरूप[संवर-निर्जरा रूप] है - उतना भी निर्विकल्पक ही है। जितना जहाँ रागरूप परिणत है वह निश्चय से सविकल्पक ही है।
प्रश्न २५१ - चौथे, पाँचवें, छठे में तीनों गुणों की वास्तविक परिस्थिति बताओ?