Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 478
________________ ४६० ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी अनिधनन्निह सम्यक्त्वं रागोऽयं बुद्धिपूर्वकः । नूनं हन्तुं क्षमो न स्थाज्ञानसंचेतनामिमाम् ॥ १६८३॥ अर्थ - यह बुद्धिपूर्वक राग जब सम्यक्त्व को नाश नहीं करता तो निश्चय से इस [ लब्धिरूप] ज्ञान चेतना को भी नाश करने के लिये समर्थ नहीं है [क्योंकि लब्धिरूप ज्ञानचेतना सम्यक्त्व से अविनाभूत है । ___ भावार्थ - राग भाव आत्मा के चारित्र गुण का ही घात करेगा। वह न तो सम्यक्त्व का ही घात कर सकता है और न सम्यक्त्व के साथ अविनाभावपूर्वक रहने वाली ज्ञानचेतना का ही घात कर सकता है। इन दोनों में राग का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। इसलिए चौथे गुणस्थान में भी ज्ञानचेतना होती ही है। उसका कोई बाधक नहीं है। जो लोग वीतराग सम्यक्त्व में ही ज्ञानचेतना कहते थे उनका सयुक्तिक खण्डन हो चुका। इसलिये इस राग के कारण सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना न मानना भूल है। यह शिष्य की ग्रन्थ प्रारम्भ में की गई दूसरी शङ्का का उत्तर दिया। _ यहाँ तक तो यह सिद्ध किया कि उपादान में यह राग सम्यक्त्व और ज्ञान को कुछ हानि नहीं पहुँचाता और अब कहते हैं कि उससाका निमिधारित्रकोहनीष भिनासन्यदायका निमित्त दर्शनमोहनीय भिन है। इस राग के कारण दर्शनमोह प्रकृति में कुछ अन्तर पड़ता हो - सो बात भी नहीं है। नाप्यूहमिति शक्तिः स्याद्रागस्यैतावतोऽपि या । बन्धोत्कर्षोदयांशानां हेतुईमोहकर्मणः ॥ १६८४ ॥ अर्थ - ऐसा भी नहीं विचार करना चाहिये कि राग की ऐसी भी शक्ति है जो दर्शनमोह कर्म के बन्ध - उदय - उत्कर्ष - अपकर्ष आदि अंशों का कारण हो। ___ भावार्थ - आचार्यदेव समझाते हैं कि यह राग चारित्र मोह के उदय से उत्पन्न होता है। इस गग से चारित्र मोह ही बन्धता है तथा इस राग से पहले बन्धे हए चारित्रमोह में ही उत्कर्षण अपकर्षण हो सकता है क्योंकि उसी से इसका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। पर दर्शनमोह कर्म इस राग के कारण बन्धता हो या बन्थ कर उदय आता हो या बन्थे हुए में उत्कर्षण अपकर्षण हो जाता हो यह बात नहीं है क्योंकि उससे इसका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध नहीं। उसका सम्बन्ध मोह भाव से है। इस कारण से भी इस राग का सम्यग्दर्शन में हस्तक्षेप नहीं है जिसके कारण से सम्यक्त्व को सविकल्प कहा जा सके। (निमित्त की मुख्यता से कथन होता है किन्तु कार्य नहीं कार्य तो सदैव उपादान की मुख्यता से ही होता है - यह नियम है)। एवं चेत् सम्यगुत्पत्तिर्न स्यात्स्याद् दृगसम्भवः । सत्यां प्रध्तंससामय्यां कार्यध्वंसस्य संभवात् || १६८५ ।। अर्ध - यदि ऐसा होवे [अर्थात् राग भाव ही दर्शन मोहनीय के बन्ध, उदय, उत्कर्ष, अपकर्ष में कारण होवे तो सम्यक्त्व की उत्पत्ति ही न होवे अथवा सम्यक्त्व की उत्पत्ति असम्भव हो जावे क्योंकि प्रध्वंस [नाशक] सामग्री के रहते हुये कार्य नाश होता ही है। भावार्थ - पहले तो शङ्काकार ने सराग अवस्था में सम्यक्त्व और ज्ञानचेतना का निषेध किया था परन्तु उसका उसे उत्तर दे दिया गया कि राग भाव का सम्यक्त्व और ज्ञानचेतना से सम्बन्ध नहीं है। सम्यक्त्वका सम्बन्ध तो दर्शनमोह से है। पराश्रित गुण-दोष अन्याश्रित नहीं हो सकते।राग भाव चारित्र गुण का घातक है वह सम्यग्दर्शन और ज्ञान का घातक नहीं हो सकता। इस पर अब शङ्काकार दूसरी शङ्का उठाता है कि यद्यपि राग भाव सम्यग्दर्शन का घातक नहीं है, सम्यग्दर्शन का घातक तो दर्शनमोह कर्म है - तथापि राग भाव उस दर्शनमोह कर्म का बन्ध कराने में तथा उसके परमाणुओं को उदय में लाने में और उनमें फेरफार करने में समर्थ हैं। आचार्य उत्तर में कहते हैं कि यदि राग भाव ही दर्शनमोहनीय का बन्ध तथा उदयादि कराने में समर्थ है तो आत्मा में सम्यक्त्व की कभी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है क्योंकि चारित्रका राग तो दसवें तक रहता है फिर तो दसवें तक ही दर्शनमोह का बन्ध उदय आदि होता रहेगा और वह सम्यक्त्व का घातक होने से सम्यक्त्व असंभव हो जावेगा। इससे सिद्ध होता है कि उस राग का दर्शनमोह कर्म अथवा सम्यक्त्व से कुछ सम्बन्ध नहीं है जो उसके कारण सम्यक्च को सविकल्पक कहा जाये।

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