Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 471
________________ द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक ४५३ A भावार्थ - जिस प्रकार ऊपर के सूत्र में बताया है कि जहाँ-जहाँ रागादिक हैं वहाँ-वहाँ ज्ञानावरण है - उसी प्रकार जहाँ-जहाँ ज्ञानावरण है, वहाँ-वहाँ रागादिक भी होते तब तो दोनों ओर से समव्याप्ति बन जाती परन्तु दोनों तरफ से व्याप्ति नहीं है किन्तु एक तरफ से ही है। इसलिये यह विषम व्याप्ति है। यह इस बात को सिद्ध करता है कि ज्ञानावरण का राग से कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् ज्ञानावरण के कारण राग नहीं है। इसलिये दसवें तक यदि इकठे भी हैं तो भी ज्ञानावरण के कारण से राग नहीं है। अपने कारण से है। यह पहले सिद्ध किया कि उपयोग का राग से सम्बन्थ नहीं है। अब यह सिद्ध किया कि उपयोग का निमित्त जो ज्ञानावरण - उसका भी राग से कुछ सम्बन्ध नहीं है। विषय अनसंधान - शिष्य की मुल शहा यह थी कि सम्यग्दष्टि के उपयोग के पर में जाने से क्या हानि है तो उसे समझा रहे हैं कि हानि तो बन्ध से होती है। उपयोग का बन्ध से कोई सम्बन्ध नहीं है यह पहले सूत्र १६४४ से १६४५ तक समझाया।उपमोन के मारने का मग मी कामह है यह सूत्र १६४५ से १६५४ तक समझाया। कारागका निमित्त जो द्रव्यमोह कर्म है उससे भी कुछ सम्बन्ध नहीं है यह सूत्र १६५५ में समझाया है। उपयोग का निमित्त 'जो ज्ञानावरण है उसका भी राग से कुछ सम्बन्ध नहीं है यह अभी ऊपर सूत्र १६५५ से १६६० तक समझाया। यद्यपि सूत्र १६४४ से १६६० तक यह भली-भांति सिद्ध कर चुके हैं कि उपयोग का बन्ध से कुछ सम्बन्ध नहीं है फिर भी पुन: अन्वय व्यतिरेक की असिद्धि के नियम द्वारा पक्का निर्णय करके निश्चय कर देते हैं कि उपयोग का बन्ध से कोई सम्बन्ध बिल्कुल नहीं है। पहले सत्र १६६१ में अन्वय की असिद्धि करेंगे फिर सत्र १६६२ में व्यतिरेक की असिद्धि करेंगे। अव्याप्तिश्योपयोगोऽपि विद्यामानेऽष्टकर्मणाम् । बन्धो नान्यतमरयापि नाबन्धस्तनाप्यसति ॥ १६६१।। अर्थ -(उपयोग के साथ ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के बन्ध की) अन्याप्ति है क्योंकि उपयोग के रहने पर भी ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का बन्ध नहीं होता है या उनमें से किसी का भी बन्ध नहीं होता है (जैसे सिद्ध अवस्था )। और उपयोग के नहीं रहने पर भी अबंध नहीं है - ऐसा नहीं है अर्थात् बंध होता रहता है। जैसे विग्रह गति )[ इससे ज्ञात होता है कि उपयोग के साथ ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के बंध की व्याप्ति नहीं है] भावार्थ - उपयोग और बंध की व्याप्ति जब बन सकती है कि जहाँ-जहाँ उपयोग हो - वहाँ-वहाँ आठ कर्मों का या किसी भी कर्म का बंध तो हो और जहाँ-जहाँ उपयोग न हो वहाँ-वहाँ कर्मों का बंध न हो। किन्तु इन दोनों बातों का विपक्ष पाया जाता है। सिद्ध में उपयोग तो है पर बंध न आठ कर्मों का है और न किसी एक कर्म का ही है। विग्रहगति में उपयोग नहीं है पर बंध सब कर्मों का है। इस प्रकार उपयोग और बंध की व्याप्ति नहीं है। अतः अन्वय नहीं घटा। अब व्यतिरेक का विचार करते हैं : यद्वा स्वात्मोपयोगीह क्वचिन्जानुपयोगावान् । व्यतिरेकावकाशोऽपि नार्थादत्रास्ति वस्तुतः ॥ १६६२॥ अर्थ -- जीव स्वात्मा में उपयोगी तो है पर जीव अनुपयोगवान् हो – ऐसा कभी होता ही नहीं है इसलिये यहां पर वास्तव में व्यतिरेक का अवकाश ही नहीं है। ___ भावार्थ - व्यतिरेक जब बन सकता है कि "जहाँ-जहाँ बंध न हो - वहाँ-वहाँ उपयोग भी न हो"। देखिये सिद्ध में बंध बिलकुल नहीं है पर उपयोग पूरा स्व में है। अत: गुरुदेव कहते हैं कि जीव स्वात्मोपयोगी तो है पर उपयोगरहित जीव नहीं है। इसलिये व्यतिरेक नहीं बना। भावार्थ - १६६१-१६६२ - उपयोग और बंध का अन्वय व्यतिरेक न बनने से समव्याप्ति नहीं है। अत: उपयोग बंध का कारण नहीं है। अब इस विषय को संकोचते हुए उपसंहार करते हैं : यह सूत्र पं. देवकीनन्दनकृत टीका तथा सोनगढ़ की गुजराती टीका में नहीं है। पं. 'फूलचन्दजी टीका का अर्थ सैद्धान्तिक दष्टि से गलत है क्योंकि सम्यादष्टि का उपयोग स्व में ही रहता हो - यह बात नहीं है। पर में भी रहता है। पं. मक्खन लाल कृत टीका के अर्थ का अनुसंधान कुछ हमारी समझ में नहीं आया। हमने पूर्वापर अनुसंधान जोड़ कर जो अर्थ किया है - उसका. आप विचार करके परीक्षा करें।

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