Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 469
________________ द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक राग और उपयोग की भिन्नता (सूत्र १६४६ रो १६५४ तक का सारांश) (१) राग औदयिक भाव है। उपयोग क्षायोपशमिक ज्ञान है। (१६४७-४८) (२) राग, श्रद्धा और चारित्र गुण का विपरीत परिणमन है और उपयोग -- ज्ञान गुण का एकदेश स्वभाव परिणमन है। (१६४७-४८) (३) राग का अनुभव कलुषता रूप है। उपयोग का अनुभव जानने रूप है। (१६४७-४८-५०) (४) राग की उत्पत्ति मोहनीय के उदय से होती है। उपयोग (ज्ञान) की उत्पत्ति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती है। (१६४७-४८) (५) राग का नाश मोहनीय के नाश से हो जाता है। वह क्षाणिक भाव है। उपयोग का नाश कभी नहीं होता - वह स्वभाव है। राग की वृद्धि मोह के उदय की वृद्धि से अविनाभूत है और ज्ञान की वृद्धि ज्ञानावरण के क्षयोपशम आधीन है। राग की कमी मोह के मन्द उदय आधीन है और ज्ञान की कमी ज्ञानावरण के उदय के बढ़ जाने (१६४९) (६) क्योंकि दोनों के कारण और स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं - अत: किसी ज्ञानी में ज्ञानावरण के क्षयोपशम से ज्ञान बहुत बढ़ जाता है और उसी समय मोहनीय के मन्द उदय से राग बिल्कुल कम हो जाता है। (१६५१) (७) क्योंकि दोनों के कारण और स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं। अत: किसी पापी में मोहनीय के तीन उदय से राग बहुत बढ़ जाता है और ज्ञानावरण का अधिक उदय रहने से ज्ञान बिल्कुल कम रहता है या ज्ञानावरण के क्षयोपशम से ज्ञान भी बढ़ जाता है। (१६५२) (८) क्योंकि दोनों के कारण और स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं। इसलिये हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि किसी विद्वान् में ज्ञान का क्षयोपशम तो बहुत बढ़ जाता है पर राग बिल्कुल कम नहीं होता - उल्टा पापों और व्यसनों में प्रवृति होती है। (१६५३) (९) क्योंकि दोनों के कारण और स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं इसलिये हम यह भी प्रत्यक्ष देखते हैं कि किसी मुमुक्षु में ज्ञान का क्षयोपशम बिल्कुल कम होता है और राग बहुत मिट जाता है।८मात्रा ज्ञानवाला रागको नाश करके केवली तक हो जाता है। यहाँ ज्ञान की और राग की - दोनों की हानि एक समय में अपने-अपने कारण से है।( १६५४) ___ उपर्युक्त से पता चलता है कि राग-द्वेष-मोह की और उपयोग की (क्षायोपशमिक ज्ञान की) अत्यन्त भिन्नता है। अत्यन्त उपेक्षा है। कोई सम्बन्ध नहीं है। न अविनाभाव है। न व्याप्ति है किन्तु अव्याप्ति और उपेक्षा है। इसको सिद्ध करने का यहाँ यह प्रयोजन है कि आत्मा के गुण-दोषों में जो बन्ध दिखाया था और शिष्य उपयोग के पर में जाने से बन्ध मानता धा - उसे ज्ञान करा रहे हैं कि उपयोग के पर में जाने से बन्ध नहीं है - अत: कछ हानि नहीं है। बन्ध तो राग से होती है। अगली भूमिका - यहाँ तक तो राग और ज्ञान की व्याप्ति का विचार किया। अब इनके निमित्तों की व्याप्ति का विचार करते हैं। राग का निमित्त मोहनीय कर्म है और ज्ञान का निमित्त ज्ञानावरण कर्म है। सो देखो भाई! उपयोग की द्रव्यमोह से भी कोई व्याप्ति नहीं है। इसको कहने का अभिप्राय वहाँ यह है कि ऐसा नहीं है कि जब सम्यग्दृष्टि का उपयोग पर में जाता हो तो मोहनीय कर्म बंधता हो और जब स्व में रहता है तो मोहनीय कर्म नबंधता: भी नहीं है। इसलिये भी उपयोग के स्व में रहने से लाभ और पर में जाने से हानि नहीं है। व्याप्तिर्वा नोपयोगस्य द्रव्यमोहेन कर्मणा । रागादीनां तु व्याप्तिः स्यात् संविदावरणैः सह ।। १६५५ ॥ अर्थ-[जिस प्रकार उपयोग की राग-द्वेष-मोह भाव के साथ व्याप्ति नहीं है -उसी प्रकार ] उपयोग की द्रव्यमोह कर्म के साथ भी च्याप्ति नहीं है किन्तु रागादिकों की व्याप्ति तो ज्ञानावरणों के साथ है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559