Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 474
________________ ४५६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी शंका ननु चेदाश्रयासिद्धो विकल्पो व्योमपुष्पवत् । तत्किं हेतुः प्रसिद्धोऽस्ति सिद्धः सर्वविदागमात् ।। १६६८॥ शंका - आगम में सम्यक्त्व को जो विकल्पात्मक बतलाया है सो वह विकल्प आकाशफूल के समान आश्रय असिद्ध है [अर्थात् वह राग सम्यक्व में नहीं पाया जाता है ] तो [ फिर यह बतलाइये कि सर्वज्ञदेव के आगमानुसार ऐसा कौनसा प्रसिद्ध हेतु सिद्ध है जिससे यह जाना जा सके कि सम्यक्त्व को इस कारण से आगम में सविकल्पक कहा है। भावार्थ - अब शिष्य सन्तुष्ट होकर गुरु महाराज से यह कहता है कि महाराज मैं समझ गया कि सम्यग्दृष्टि का उपयोग चाहे स्व में रहे या पर में यह तो ज्ञान का काम है। इससे सम्यक्त्व का कोई सम्बन्ध नहीं है। वह तो दोनों अवस्थाओं में निर्विकल्प ही है। पर महाराज जब ऐसा वस्तु स्वरूप है तो फिर आगम में कुछ आचार्यों ने जो सविकल्प और निर्विकल्प सम्यक्त्व लिखा है और लोक में प्रसिद्ध भी ऐसा ही है फिर वह कथन झूठा है क्या? यदि नहीं तो फिर उसका क्या बनेगा? कुपाकर इसका समाधान और कर दीजिये। सो इसके उत्तर में उसे कहेंगे कि भाई उन आचार्यों का ऐसा आशय है कि जब तक चारित्र गुण में बुद्धिपूर्वक राग है उस समय तक उसकी सहचरता के कारण उस ज्ञानी के सम्यक्त्व को सपिकल्प कह दिया है। यहाँ सह का अर्थ है कि जो सम्यक्त्व - चारित्र के बुद्धिपूर्वक राय सहित है और वीतराग का अर्थ है कि जिस सम्यक्व के साथ चारित्र का बुद्धिपूर्वक राग बीत गया है। ऐसा उन आचार्यों का आशय है। सम्यक्त्व के दो भेद करने का उनका आशय नहीं है। इस कथन से आगम पाठियों ने या जनता ने जो दो प्रकार का सम्यक्त्व कोही समझ लिया है - वह उनकी निज भूल है। अपनी बुद्धि का दोष है। समाधान सूत्र १६६९ से १३८७ तक १९ सत्यं विकल्पसर्वरवसारं ज्ञानं स्वलक्षणात् । सम्यक्त्वे यदिकल्पत्वं न तत्सिर्ट परीक्षणात ॥ १६६९|| अर्थ -- ठीक है। ज्ञान तो अपने लक्षण से विकल्पात्मक है किन्तु सम्यक्त्व में जो विकल्पपना है वह परीक्षा करने से सिद्ध नहीं होता अर्थात् सम्यक्त्व विकल्पात्मक होता ही नहीं। भावार्थ - भाई! देखने वाले दर्शन का लक्षण निर्विकल्प अधात् ज्ञेयाकार रहित है और ज्ञान का लक्षण सविकल्प अर्थात् ज्ञेयाकार सहित है। इस अपने लक्षण से तो सभी ज्ञान सविकल्पक है। केवल ज्ञान में भी स्वपर ज्ञेयाकारता है - अतः वह भी सविकल्पक है। दूसरे जैसा तुम्हें समझाया गया है कि विकल्प का एक अर्थ उपयोग संक्रान्ति भी है। सो इस अपेक्षा तो छद्मस्थों के चारों ज्ञान सविकल्पक हैं और केवली का ज्ञान निर्विकल्पक है। तीसरे विकल्प का अर्थ - उपयोग का एक पदार्थ से हटकर दूसरे पदार्थ को जानना है सो इस अपेक्षा शुद्धोपयोग के समय [ उपयोगात्मक के समय] तो छदास्थों का ज्ञान निर्विकल्पक है और पर को जानते समय छद्मस्थों का ज्ञान सविकल्पक है। इस प्रकार तीनों तरह ज्ञान को सविकल्पक कहना तो ठीक है पर सम्यग्दर्शन को सविकल्पक कहना तो अनुचित है क्योंकि परीक्षा करने से सम्यक्त्व में विकल्पपना किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता। यत् पुनः कैश्चिदुक्तं स्यात्रथूललक्ष्योन्मुरबैरिह । अनोपचारहेतुर्यस्तं बुवे किल साम्प्रतम् || १६७० ।। अर्थ – किन्हीं स्थूल लक्ष्य उन्मुख आचार्यों द्वारा [ सूक्ष्मता से गुण भेद पूर्वक कथन न करके - स्थूल अभेद दृष्टि से कथन करने वाले आचार्यों द्वारा ] जो [आगम में ] सम्यक्त्व को सविकल्पक कहा गया है। इसमें जो उपचार कारण है - उस [ उपचार कारण ] को अब मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ। शरीर वास्तव में हर समय अचेतन है पर जब तक जिस शरीर के साथ चेतना की सहचरता है - तब तक उस शरीर को चेतन शरीर कहने की आगम तथा लोकरूढ़ि है। इसलिये जिन्दा आदमी के शरीर को चेतन शरीर और मुरदा आदमी के शरीर को अचेतन शरीर – ऐसे दो भेद किये जाते हैं। ऐसे कथनों को उपचार कथन कहते हैं

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