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ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
राम
उनकी भूल इस कारण से है कि लब्धिरूप ज्ञान-चेतना तो सभी सम्यग्दृष्टियों को नियम से रहती है। उसका विरह तो एक समय को भी नहीं है। यदि उसका विरह हो जाए तो मिथ्यादृष्टि हो जाए और उपयोग रूप ज्ञान-चेतना भी चौथे से ही नियम से कभी-कभी होती ही है। इसलिए उपयोग रूप ज्ञान-चेतना भी सम्यग्दृष्टियों के सब गुणस्थानों में पाई जाती है। यह ध्यान रहे कि ज्ञान-चेतना ज्ञान की पर्याय है। सम्यग्दर्शन की नहीं। लब्धि रूप ज्ञान-चेतना ज्ञान के क्षयोपशम रूप है और उपयोग रूप ज्ञान-चेतना ज्ञान के स्वज्ञेय की जानकारी को कहते हैं। यह भी समझ लेना चाहिए कि सम्यग्दर्शन से जो संवर पूर्वक निर्जरा होती है वह निरन्तर हुआ करती है। चाहे उपयोग स्व में हो या पर में। वह निर्जरा तो सम्यक्त्व की शुद्धि के बल पर होती है कहीं उपयोग के बल पर नहीं होती। यही बात पुण्य बन्ध
और पाप के अबन्थ की है तथा चौथे गुणस्थान में सम्यग्दृष्टि के जो ७७ प्रकृतियों का बन्ध कहा है सो स्व में उपयोग रूप ज्ञानचेतना के समय भी उतना ही बन्ध है और पर में उपयोग के समय में भी उतना ही बन्ध है। ज्ञान का गुणदोष से या बन्य-अबन्ध से कोई सम्बन्ध नहीं है। ज्ञान का काम तो केवल जानना है। अन्तर यही है कि चौथे, पाँचवें, छठे गुणस्थान के सम्यग्दृष्टियों को पर में उपयोग की प्रवृत्ति के समय चारित्र गुण में बुद्धिपूर्वक राग रहता है और स्व में उपयोगात्मक ज्ञानचेतना के समय चारित्र गुण में बुद्धिपूर्वक राग नहीं रहता और इस राग के कारण कुछ आकुलता रूप दुख अधिक हो जाता है। केवल इस अभाव के लिए या निराकुल आत्मानन्द के लिए ज्ञानी स्वात्मानुभूति का उपयोग रूप अनुभव किया करते हैं। बाकी लब्धिरूप ज्ञानचेतना तो उनके हर समय रहती ही है और व्यक्त्व के और चारित काल से होने वाली निर्जरा भी निरन्तर हुआ ही करती है।
सविकल्प सम्यग्दृष्टियों के ज्ञान-चेतना नहीं होती किन्तु प्रतीति मात्र होती है ऐसा जो शंकाकार मानता है - उसमें यह भी भूल है कि प्रतीति मात्र तो मिथ्यादृष्टियों के भी होती है। वह कहीं सम्यक्त्व नहीं है।
ग्रन्थकार सम्यक्त्व की जो चर्चा अब करने वाले हैं - वह बहुत सूक्ष्म किन्तु मार्मिक है। इसका विशेष परिश्रम से अभ्यास करने पर ही लाभ होगा और स्पष्ट तो किसी ज्ञानी के सहवास में ही समझ में आयेगा।
गुरुदेव लब्धि रूप ज्ञानचेतना और उपयोगरूप ज्ञानचेतना का पहले सूत्र न. ११५५ से ११७७ तक निरूपण कर . आये हैं। उसका पुनः अभ्यास करलें - फिर यह विषय समझने में आपको विशेष सुगमता रहेगी।
सम्यग्दर्शन में सविकल्प निर्विकल्प भेद नहीं है
तथा सब सम्यग्दृष्टियों के ज्ञान-चेतना होती है। (सूत्र १५८९ से १७०३ तक ११५)
शङ्का सूत्र १५८९ से १५९४ तक ६ ननु रूढिरिहाप्यस्ति योगाद्वा लोकतोऽथवा ।
तत्सम्यक्त्वं द्विधाप्यर्थनिश्चयाद् व्यवहारतः ।। १५८९।। शङ्का - शास्त्र से भी और लोक से भी यह रूढि है कि वह सम्यक्त्व निश्चय और व्यवहार से दो प्रकार है।
. व्यावहारिकसम्यक्त्वं सरायं सविकल्पकम् ।
निश्चयं वीतरागं तु सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् ॥ १५९०॥ शङ्का चालू - व्यवहार सम्यक्त्व सराग अर्थात् सविकल्पक है किन्तु निश्चय सम्यक्त्व वीतराग अर्थात् निर्विकल्पक है।
इत्यस्ति वासनोन्मेषः केषाञ्चिन्मोहशालिना ।
तन्मते वीतरागस्य सद्दष्टेनिचेतना || १५९१॥ शङ्का चालू – किन्हीं मोहयुक्त पुरुषों के यह वासना जन्य संस्कार है। उनके मत में वीतराग सम्यग्दृष्टि के ही ज्ञानचेतना है।