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द्वितीय खण्ड/ छठी पुस्तक
भावार्थ - जिस समय ऐन्द्रिय ज्ञानवाला व्यक्ति किसी एक पदार्थ का ध्यान बहुत समय तक करता है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि उसका ज्ञान अक्रमवर्ती है पर वास्तव में ऐसा नहीं है। वह ज्ञान क्रमवर्ती ही हैं। अन्तर केवल यह है कि वह दूसरे ज्ञेय पर उपयोग का परिवर्तन न करके उसी ज्ञेय पर पुनः पुन: उपयोग का परिवर्तन कर रहा है। इसलिये ऐन्द्रिय ज्ञान ध्यान अवस्था में भी क्रमवर्ती ही है। अक्रमवर्ती नहीं।
एकरूपमिवाभाति
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ज्ञानं ध्यानैकतानतः । तत्स्यात्पुनः पुनर्वृत्तिरूपं स्यात्क्रमवर्ति च ॥ १६०८ ॥
अर्थ – ध्यान में एक तान होने से एक रूप जैसा प्रतिभारित होता है (किन्तु वास्तव में) वह पुन: पुन: ( उसी विषय पर ) वृत्ति रूप है और क्रमवर्ती है ( भावार्थं ऊपर स्पष्ट हो गया है )।
नाञ हेतुः परं साध्ये क्रमत्वेऽर्थान्तराकृतिः ।
किन्तु तत्रैव चैकार्थ पुनर्वृतिरपि क्रमात् ॥ १६०९ ॥
अर्ध - इस कमत्व की सिद्धि में केवल दूसरे पदार्थ के आकार रूप होना कारण नहीं है किन्तु उसी एक ही पदार्थ में पुनः पुनः वृत्ति भी क्रम से होती है अर्थात् यह आवश्यक नहीं है कि दूसरे ज्ञेय पर जाय तभी क्रमवर्ती कहलाये किन्तु उसी पदार्थ को भी पुनः पुनः विषय करने से भी क्रमवर्ती होता है। अतः ध्यान में भी क्षायोपशमिक ज्ञान क्रमवर्ती ही है ।
नोहां सत्राप्यतिव्याप्तिः क्षायिकात्यक्षसंविदि । स्यात्वरिणामवत्त्वेऽपि
पुनर्वृत्तेरसम्भवात् ॥ १६१० ॥
अर्थ - तुम्हें यहाँ ऐसा तर्क नहीं करना चाहिये कि ध्यान रूप ज्ञान का यह लक्षण क्षायिक अतीन्द्रिय ज्ञान में चले जाने से अतिव्याप्ति दोष हो जाता है। यह दोष नहीं होगा। क्योंकि यद्यपि क्षायिक ज्ञान परिणामी है तथापि उसकी पुनः - पुनः प्रवृत्ति संभव नहीं है अर्थात् जिस प्रकार ध्यान वाला व्यक्ति एक ही पदार्थ को पुनः पुनः जानता है उसी प्रकार केवलज्ञान भी एक ही पदार्थ को पुनः पुनः जानता है इसलिये अतिव्याप्ति दोष है - सो बात नहीं है क्योंकि ध्यान वाला व्यक्ति उस एक ही पदार्थ को उपयोग की पुनः पुनः वृत्ति पूर्वक जानता है किन्तु केवलज्ञान में स्वाभाविक परिणमन होने पर भी पुनर्वृत्ति अर्थात् उपयोग संक्रान्ति नहीं है। इसलिये अतिव्याप्ति दोष नहीं है। इससे यह सिद्ध किया कि क्षायोपशमिक ज्ञान ही पुनर्वृतिरूप है। क्षायिक ज्ञान नहीं।
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भावार्थ - यद्यपि स्थूलदृष्टि से ध्यान और क्षायिक ज्ञान दोनों ही क्रमरहित दीखते हैं क्योंकि अर्थ से अर्थान्तर का ग्रहण दोनों में नहीं है तथापि दोनों में बड़ा अन्तर है। ध्यान इन्द्रियजन्य ज्ञान है। वह यद्यपि एक पदार्थ में ही एक काल में होता है तथापि उसी में फिर-फिर उपयोग लगाना पड़ता है। क्षायिक ज्ञान ऐसा नहीं है। वह अतीन्द्रिय है। इसलिये उसमें उपयोग की पुनर्वृत्ति नहीं है। वह सदा युगपत अखिल पदार्थों के जानने में उपयुक्त रहता है। क्योंकि क्षायिक ज्ञान में क्रमवर्तीपन नहीं है। इसलिये ध्यान का लक्षण उसमें सर्वथा नहीं जाता है। अतः अतिव्याप्ति दोष नहीं है। पुनः भावार्थ शङ्काकार का कहना है कि यदि कदाचित् यह कहो कि ध्यान में क्रमवर्तित्व मानने से केवली के ध्यान में भी क्रमवर्तित्व का प्रसङ्ग आवेगा तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि केवली के अतीन्द्रिय क्षायिक ज्ञान में पुनर्वृत्ति नहीं होती है इसलिये वह क्रमवर्ति न कहलाकर अक्रमवर्ती तथा युगपत् अनन्तपदार्थों का ज्ञायक कहलाता है तथा उसमें जो ध्यान शब्द की वृत्ति है वह उपचरित है क्योंकि ध्यान श्रुतज्ञान की पर्याय है इसलिये वास्तव में ध्यान बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय तक ही होता है; परन्तु आगे के गुणस्थानों में कर्म की निर्जरा रूप ध्यान का कार्य पाए जाने के कारण ध्यान का उपचार किया जाता है।
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पुनः भावार्थ- कोई यह कहे कि क्षायिक ज्ञान कूटस्थ थोड़ा ही है। उसमें भी तो परिधामन होता है - वह परिणमन ही क्रमवर्तीपना है। जिस प्रकार ध्यानी का ज्ञान एक ही ज्ञेय को पुनः पुनः जानता है एक ही ज्ञेय को पुनः पुनः जानता है। सो उसके उत्तर में उसे समझाते हैं कि स्वाभाविक क्रमवर्तीपना (उपयोग संक्रान्ति) और चीज है। क्षायिक ज्ञान में परिणमन भले ही हो
उसी प्रकार केवली का ज्ञान परिणमन और चीज है और - पर क्रमवर्तीपना ( उपयोग