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ग्रन्थराज श्रीपञ्चाध्यायी
भावार्थ-आत्मा के लिये तीसरा गुण-दोष पुण्य-पाप बन्धका था। सो अब उसकी चर्चा प्रारम्भ करते हुए कहते हैं कि उपयोग का बन्ध से भी कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् यह जो लोगों की धारणा है कि उपयोग स्व में हो तो बन्ध नहीं होता है और उपयोग पर में हो तो बन्ध होता है -सोलह आने गलत है। वन्ध का अविनाभाव राग-द्वेष-मोह से है। उपयोग से बिल्कुल नहीं है।
व्याप्तिर्बन्धस्य रागाौ व्याप्तिर्विकल्पैरिव ।
विकल्परस्य चाव्याप्तिन व्याप्तिः किल तैरिव १६४५॥ अर्थ-बन्धकी रागादिकों के साथ व्याप्ति है-अव्याप्ति नहीं है जैसी कि(बन्ध की) ज्ञानविकल्पों (ज्ञान भेदों - क्षायोपशमिक ज्ञानों) के साथ अव्याप्ति है और इस बन्ध की ज्ञान-विकल्पों (ज्ञानभेदों) के साथ अव्याप्ति है - व्याप्ति नहीं है जैसे कि बन्ध की निश्चय से उन रागादिक के साथ व्याप्ति है (प्रत्येक सूत्र को अस्ति-नास्ति से लिखने की श्री अमृतचन्द्रजी की आदत ही है।
भावार्थ - जैसे रागादिक के अंशों के साथ बन्ध के होने का अविनाभाव है, वैसा ज्ञान के विकल्पों ( अंशों) के साथ नहीं है अर्थात् जब जितने अंशों में गगादिक होते हैं, तब उतने ही अंशों में बन्ध भी होता है। जितने अंश में राग घटता है - उतने अंश में बन्ध घटता है - जितने अंश में राग बढ़ता है - उतने अंश में बन्ध बढ़ता है उसी प्रकार ज्ञान के घटने-बढ़ने पर भी बन्ध का नियम हो सो नहीं है अथवा ज्ञानोपयोग के स्वया पर में जाने पर बन्थ का नियम हो – सो भी नहीं है। तथा ज्ञान के विकल्पों ( अंशों) के साथ जैसी बन्ध की अव्याप्ति है वैसी रागादिक के साथ अव्याप्ति नहीं है अर्थात् जैसे-जैसे ज्ञान में हीनाधिकता होती है तदनुसार बन्ध भी होता हो - यह नियम नहीं है और जैसे-जैसे राग की हीनाधिक होती है वैसे-वैसे बन्ध न हो- यह नहीं बन्ध होता ही है। इस तरह इस सूत्र में, रागादिक के साथ ही बन्धकी व्याप्ति को, तथा ज्ञानविकल्पों के साथ अव्याप्ति को ही निश्चय रूप से कहने के लिये, उभयथा व्याप्ति-अव्याप्ति बतलाई है।
सार - इसमें बन्थ की और राग की समव्याप्ति का ज्ञान कराया है तथा बन्ध की और क्षायोपशामिक ज्ञानों की अव्याप्ति का ज्ञान कराया है। जहाँ-जहाँ रागादिक होंगे वहाँ-वहाँ बन्थ होगा ही होगा। रागादिक हों और बन्ध न हों - यह नहीं हो सकता और जहाँ-जहाँ क्षायोपशनिक ज्ञान होगा- वहाँ-वहाँ अबन्ध ही होगा - बन्ध नहीं होगा। विषय की दृढ़ता के लिये दोनों ओर से इसलिये लिखा है कि देख भाई शिष्य! बध का सम्बन्ध रागादिक से ही है - उपयोग के पर को जानने से बिल्कुल नहीं है।
ऊपर तो यह कहा कि उपयोग की बन्ध से व्याप्ति नहीं है । कुछ सम्बन्ध नहीं है ) अब यह कहते हैं कि बन्ध को करने वाला जो राग भाव है - उसके साथ भी उपयोग का कोई सम्बन्ध नहीं है किन्तु उपेक्षा है - उदासीनता है - असंबंध है।
राग और उपयोग की भिन्नता १६४६ से १६५४ तक ९ नानेकत्वमसिद्धं स्याम्ज स्याद ध्याप्तिर्मिथोडनयोः ।
रागादेश्वोपयोगास्य किन्तूपेक्षास्ति तदद्वयोः ॥ १६४६ ॥ अर्थ - रागादिक [राग, द्वेष, मोह के और उपयोग के अनेकपना असिद्ध नहीं है [अर्थात् दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं यह सिद्ध ही है ] और इन दोनों की[राग की और उपयोग की] परस्पर में व्याप्ति भी नहीं है किन्तु उन दोनों में तो उपेक्षा है अर्थात् इनमें से कोई एक किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं करता। दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं है। दोनों स्वतंत्र हैं।
भावार्थ – रागादिक और उपयोग ये दोनों परस्पर में एक नहीं किन्तु अनेक हैं। कदाचित् कहा जाए कि अनेक होते हुए भी उनमें किसी तरह का अविनाभाव सम्बन्ध है -- सो भी नहीं है कारण कि रागादिक और उपयोग इन दोनों में किसी प्रकार की परस्पर अपेक्षा नहीं है किन्तु उपेक्षा है। यह नियम रूप सूत्र है। इसी को हेतु और दृष्टांतों से १६४७ से १६५४ तक सिद्ध किया है अर्थात् इसी एक सूत्र का पेट अगले ९ सूत्रों में खोला है।