Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 464
________________ ४४६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी TI गुण दोष-सूत्र १६३२ से १६३६ का सार (१)- छूटने के [ मोक्ष के कारणों को गुण [ लाभ ] कहते हैं। अनादि काल का आत्मा मिथ्यादृष्टि है। उसमें नवीन औपशमिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति होना गुण है। फिर औपशमिक या क्षायोपशमिक से क्षायिक सम्यकच होना या क्षायोपशभिक सम्यक्त्व में शुद्धि की वृद्धि होना या कृत्कृत्यवेदक होना सम्यक्त्व की वृद्धि नामा गुण है। बन्धन के [संसार के कारणों को हानि [ दोष ] कहते हैं। सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि होना दोष है। औपशामिक से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो जाना या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की शुद्धि के अंशों में कुछ हानि होना - सम्यक्त्व का कुछ अंश में कम होना नामा दोष है। (१६३२-१९३३-१६३५)। (२)- औपशमिक सम्यक्त्व होते ही संवर निर्जरा प्रारम्भ हो जाती है - यह आत्मा को लाभ है। औपशभिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक में अधिक संवर निर्जरा होती है - यह संवर निर्जरा की वृद्धि नामा गुण है। सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि होने पर संवर निर्जरा बंद हो जाती है - यह हानि है या सम्यक्त्व अवस्था में ही संवर निर्जरा का कुछ अंश में कम हो जाना भी हानि है। (१६३२, १६३३, १६३५, १६३६) (३)- पुण्य बन्ध यद्यपि हेय है फिर भी उसका गुण दोष से सम्बन्ध है। जो पुण्य बन्ध सम्यक्त्व अवस्था में ही होता है - उस बंध का प्रारम्भ होना गुण है। फिर उसमें वृद्धि होना गुण है। पाप प्रकृति का बदल कर पुण्य प्रकृति होना भी गुण है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि होने पर पाप का बंध प्रारम्भ होना हानि है। पाप बंध में वृद्धि होना हानि है। पुण्य बंध की कमी होना हानि है। पुण्य प्रकृति का पाप प्रकृति में बदलना हान है। (१६३३, १६३४, १६३६) नोट - उपरोक्त सूत्रों में गुण-दोषों का शिष्य को परिज्ञान कराया। अब यह सम्मझाते हैं कि ज्ञानोपयोग का पर को जानने में गुण या दोष का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। साथ ही यह भी समझाते हैं कि उन गुण-दोषों का जिनसे सम्बन्ध है - उनसे भी उपयोग का कोई सम्बन्ध नहीं है। गुणदोषद्वयोरेवं नोपयोगोऽस्ति कारणम् । हेतु ल्यतरस्यापि योगवाही च जाप्ययम् ॥ १६३७१ अर्थ - इस प्रकार गुण-दोष दोनों में ही उपयोग कारण नहीं है अथवा उपयोग किसी एक गुण या दोष का हेतु भी नहीं है और यह उपयोग योगवाही (निमित्त कारण) भी नहीं है। भावार्थ - (१) जिस प्रकार आत्मा का मिथ्यात्व रूप परिणमन ज्ञान के कुज्ञानपने में कारण है - उस प्रकार आत्मा का उपयोग परिणमन आत्मा के गुण-दोषों में कारण नहीं है (२) जिस प्रकार धूम अग्नि का हेतु ( साध्य से अविनाभावी साधन ) है, उसप्रकार गुण-दोष रूप साध्य का उपयोग हेतु( अविनाभावी साधन भी नहीं है।(३)जिस प्रकार दर्शनमोह सम्यक्त्व का निमित्त कारण है, उस प्रकार उपयोग गुण-दोषों का निमित्त कारण भी नहीं है। अर्थात् उपयोग का गुण-दोष से कुछ सम्बन्ध ही नहीं है। सम्यक्त्वं जीतभावः स्यादस्ताद दृइमोहकर्मणः । अरिस तेनाविनाभूतं व्याप्ते: सद्भावतस्तयोः ॥ १६३८ ॥ ___ अर्थ - सम्यक्त्व जीव का भाव है जो दर्शनमोह कर्म के अनुदय से होता है। उसके अनुदय से अविनाभूत है क्योंकि उन दोनों में (सम्यक्त्व और दर्शनमोह के अनुदय में ) व्याप्ति का मद्भाव है। भावार्थ - गुणों की गणना में पहला गुण सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति बतलाया है सो अब कहते हैं कि उसकी प्राप्ति में उपयोग का कुछ सम्बन्ध नहीं है किन्तु दर्शनमोह नामा कर्म से उसका सम्बन्ध है । सम्यक्त्व की उसके अनुदय के साथ सम-व्याप्ति है अर्थात् जहाँ-जहाँ सम्यक्त्व है वहाँ-वहाँ दर्शनमोह का अनुदय है और जहाँ-जहाँ सम्यक्त्व नहीं है वहाँ-वहाँ दर्शनमोह का अनुदय भी नहीं है। उपयोग चाहे स्व में हो या पर में - इससे कुछ प्रयोजन नहीं है।

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