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द्वितीय खण्ड/छटी पुस्तक
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भावार्थ – सम्यक्त्व का छूट जाना हानि है। क्षायोपशमिक सम्यक्च में कुछ शुद्धि के अंशों का कम होना हानि है। किसी भी सम्यग्दृष्टि की सम्यक्त्व की आंशिक हानि के कारण उससे होनेवाली संवर निर्जरा में कमी होना हानि है।
व्यरतेनाथ समरतेन तदद्वयस्योपमूलनम् ।
हानिर्वा पुण्यबन्धस्य हेयस्याप्यपकर्षणम् ॥ १६३३॥ अर्थ - (४) भिन्न-भिन्न रूप से अथवा इकट्ठ रूप से उन दोनों [ सम्यक्त्व और निर्जरा ] का नाश होना हानि [दोष ] है। अथवा (५) हेय भी पुण्यबन्ध का अपकर्षण [ घटना] हानि है।
भावार्थ- सम्यक्त्व और उससे होनेवाली निर्जरा का अविनाभाव है। अतः उन दोनों का एक साथ नाश होना हानि है। गुण उसे कहते हैं जो छूटने का कारण हो पर पुण्य तो बंधन का कारण है इसलिये वह वास्तव में गुण नहीं है। हेय है -- छोड़ने योग्य है ] पर फिर भी कुछ भूमिकाओं में उसका शुद्धि के साथ अविनाभाव होने के कारण उस पुण्य का भी घट जाना हानि है [ यह पुण्य के कारण शुद्धि थी या है – ऐसा न समझें]।
उत्पत्तिः पापबन्धस्य स्यादुत्कर्षोऽथवास्य च ।
सदद्वयरच्याथवा किञ्चिद्यावदुद्वेलनादिकम् ॥ १६३४ ।। अर्थ -(६)अथवा पाप बंध की उत्पत्ति होना अथवा (७)इस पापबंध का उत्कर्ष [ बढ़ना] दोष है अथवा (८) उन दोनों की [ सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्व ( मिश्र ) प्रकृति की मिथ्यात्व रूप] उद्वेलना आदि का होना भी दोष है।
भावार्थ - जब जीव अनादि मिध्यादृष्टि से औपशामिक सम्यग्दृष्टि होता है तो मिथ्यात्व प्रकृति के स्वतः तीन टुकड़े हो जाते हैं और जब पुन: सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि बनता है तो उन तीन में से दो प्रकृति के परमाणु स्वतः मिथ्यात्वरूप होकर मिथ्यात्व प्रकृति में मिलने लग जाते हैं। इसको " उन दोनों की उद्वेलना" कहते हैं। क्योंकि उन दो प्रकृतियों में जितना मिथ्यात्व का रस [अनुभाग] है - वह मिथ्यात्व रूप बदलने से बढ़ जाता है। अत: उन दो प्रकृतियों का मिथ्यात्व रूप बनने में पाप की पुन: उत्पत्ति और पाप की द्धि दोनों बातें हैं। यह भी आत्मा के लिए दोष है।
गुणों का वर्णन सूत्र १६३५-१६३६८२ गुणः सम्यक्त्वसंभूतिरुत्कर्षो वा सतोंशकैः।
जिर्जराभिनवा यद्वा संवरोऽभिनवो मनाक ॥ १६३५ ।। अर्थ – गुण (१) सम्यक्व की उत्पत्ति होना है अथवा( २) उसके सत् अंशों द्वारा वृद्धि होना है अथवा (३) नवीन निर्जरा का होना है और ( ४ ) कुछ नवीन संवर का होना है।
भावार्थ - अनादि मिथ्यादृष्टि से औपशमिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति होना गुण है । फिर औपमिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक हो जाना गुण है।क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के शुद्धि अंशों में वृद्धि होना भी गुण है। सम्यक्त्व की उत्पत्ति से नई निर्जरा का प्रारम्भ होना गुण है और उसका अविनाभावी संवर होना भी गुण है।
उत्कर्षो वानयोरंशैद्धयोरन्यतरस्य वा।।
श्रेयोबन्धोऽथवोत्कर्षों यदा स्यादपकर्षणम ||१६३६॥ अर्थ - अथवा (५) संवर और निर्जरा दोनों की अंश रूप से वृद्धि होना अथवा ( ६ ) दोनों में से किसी एक की वृद्धि होना (७) पुण्य अन्ध का होना अथवा (८) उस पुण्य बन्ध की वृद्धि होना अथवा (९) पाप का अपकर्षण होना (घटना) गुण है। __भावार्थ - चौथे गुणस्थान से ज्यों-ज्यों ज्ञानी की शुद्धि की वृद्धि होती है त्यों-त्यों संवर या निर्जरा या दोनों की भी वृद्धि होती है - यह गुण है। तीर्थकर, आहारक, अनुदिश और पंचोत्तर आदि कुछ ऐसी प्रकृतियाँ हैं जो ज्ञानियों के ही बंधती हैं - उनका बंधना गुण है। चौधे से दसवें तक पुण्यप्रकृतियों में अनुभाग बढ़ता रहता है- यह गुण है। चौथे से ही पूर्व अवस्था की बंधी हुई पाप प्रकृतियों का स्थिति अनुभाग घटना प्रारम्भ हो जाता है - यह गुण है।