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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
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ज्ञानचेतना का तो उस समय नाश हो जाता है पर उस समय में उनकी निजात्मा में सम्यक्त्व से अविनाभूत ज्ञान लब्ध को आवरण करने वाले ज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से होने वाली लब्ध रूप ज्ञानचेतना तो बनी ही रहती है और उसी के बल पर ही हम यह कहते हैं कि उपयोग के पर में जाने पर भी ज्ञानचेतना रहती है।
શત
समाधान सूत्र ९६१५ से १६२४ तक १० सत्यं हेतोर्विपक्षत्वे वृत्तित्वाद् व्यभिचारिता । यतोऽत्रान्यात्मनोऽन्यत्र स्वात्मनि ज्ञानचेतना ॥ १६१५ ॥
शब्दार्थ
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि तुम्हारा यह कहना तो ठीक है कि विपक्षवृत्ति होने से [ अर्थात् हेतु के विपक्ष में रहने से] हेतु को व्यभिचारीपना आता है, किन्तु यहाँ पर हेतु विपक्षवृत्ति नहीं है, क्योंकि अन्य पदार्थों से भिन्न जो शुद्ध निजात्मा है, उसमें ज्ञानचेतना की वृत्ति होने से पदार्थान्तर में उपयोग का गमन भी बन जाता है और ज्ञानचेतना की विपक्षवृत्तित्व भी नहीं आता ।
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भावार्थ उत्तर में आचार्य महाराज समझाते हैं कि हम पर में ज्ञानचेतना नहीं मानते। ज्ञानचेतना का वास्तव में स्व से ही सम्बन्ध है पर से सम्बन्ध नहीं है • वह इस प्रकार कि जो उपयोगात्मक ज्ञानचेतना है वह तो है ही सर्वथा स्व में उपयुक्त - अतः उसका तो पर से कुछ सम्बन्ध है ही नहीं ।। १६२४ ।। अब रही लब्धिरूप ज्ञानचेतना - वह आत्मा में ज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम रूप है। उसका भी पर से कुछ सम्बन्ध नहीं है ।। १६२३ ।। इसलिये उपयोग जितने अंश में पर को जान रहा है - उतने अंश में ज्ञानचेतना से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये हमारा हेतु विपक्ष में न जाने से व्यभिचारी नहीं है। पर यहाँ पर शङ्काकार इतनी बात भूलता है कि जिस समय पर में उपयोग जाता है उस समय भी सम्यग्दर्शन से अविनाभावी ज्ञानचेतना वरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से होने वाली लब्धि रूप ज्ञान चेतना तो उनके रहती ही है। उसके बल पर ही उनके [ उपयोग के पर में चले जाने पर भी ] ज्ञानचेतना कही जाती है। इसी बात को अगले सूत्र १६१६ से १६२४ तक ९ सूत्रों में स्पष्ट खोल कर दिखलाते हैं अर्थात् अगले ९ सूत्रों में स्पष्टीकरण है जिनमें शिष्य की उपर्युक्त शङ्का का समाधान किया है।
अन्यात्मनः अन्यत्र पर पदार्थ से भिन्न । अत्र आत्मनि = अपनी इस आत्मा में ही ।
किञ्च सर्वस्य सद्दृष्टेर्नित्यं स्याज्ज्ञानचेतना | अव्युच्छिन्नप्रवाहेण यद्वाऽखण्डैकधारया || १६१६ ॥
अर्थ सब सम्यग्दृष्टियों के अटूटक प्रवाह से अथवा अखण्ड एक धारा से नित्य ज्ञान- चेतना होती है । [ लब्धि रूप ज्ञानचेतना की अपेक्षा यह कथन किया गया है ]।
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भावार्थ:- ऐसा सैद्धान्तिक नियम है कि जिस समय दर्शनमोह कर्म का अनुदय होता है उसी समय लब्धि रूप ज्ञानचेतना के आवरण करने वाले ज्ञानावरण का भी क्षयोपशम अवश्य होता है। सम्यक्त्व तथा ज्ञानचेतना के बाधक कर्मों का अनुदय युगपत होने से उन दोनों की उपलब्धि भी युगपत् ही होती है। जबतक सम्यक्त्व का सद्भाव होता है तबतक लब्धिरूप ज्ञानचेतना भी अखण्डधारा से अवश्य रहती है। इसलिये सम्यक्त्व के साथ ज्ञानचेतना का नित्य सम्बन्ध बताया है और इसीलिये सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना को नित्य कहा है।
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हेतुस्तत्रास्ति सध्रीची सम्यक्त्वेनान्वयादिह ।
ज्ञानसंचेतनालब्धिर्नित्या स्वावरणव्ययात् ॥ १६१७ ॥
अर्थ सब सम्यग्दृष्टियों के निरन्तर ज्ञानचेतना के रहने में कारण यह है कि सम्यग्दर्शन के साथ अन्वयरूप से रहने वाली जो समीचीन ज्ञान चेतना लब्धि है - वह अपने आवरण के दूर होने से सम्यग्दर्शन के साथ सदा रहती है [ आत्मा में सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होने के साथ ही मतिश्रुतज्ञानावरण कर्म का विशेष क्षयोपशम होता है। उसी क्षयोपशम का नाम ज्ञानचेतना लब्धि है। यह लब्धि सम्यग्दर्शन के साथ अन्वय रूप से सदा रहती है, और यही लब्धि उपयोगात्मक ज्ञानचेतना में कारण है ]
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