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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक
मंगलाचरण परमपुरुष निज अर्थ को साध गये गुणवृन्द । आनन्दामृतचन्द्र को, वन्दत हूँ सुखकन्द ॥
विषय-परिचय आगम में भी यह रूढ़ि है और लोक में भी यह रूढ़ि है कि सम्यक्त्व सविकल्प और निर्विकल्प के भेद से दो प्रकार का है। वास्तव में यह बात सत्य नहीं है। सविकल्प तो ज्ञान को कहते हैं और निर्विकल्प देखने वाले दर्शन को कहते हैं। यह बात सत्य है। सम्यक्त्व को नहीं कहते। दूसरे विकल्प का अर्थ राग भी होता है। सो चारित्र में जब तक राग रहता है। उस समय तक उसको सराग चारित्र कहते हैं और जब राग नहीं रहता तो वीतराग चारित्र कहते हैं। सो इस प्रकार चारित्र को भी सविकल्प (राग रहित) निर्विकल्प ( राग रहित) कहना टीक है, किन्तु सम्यक्त्व को नहीं। सम्यक्त्व गुण का परिणमन तो या मिथ्यादर्शन रूप होता है या सम्यग्दर्शन रूप। सविकल्प निर्विकल्प रूप उसमें कोई पर्याय ही नहीं है। तत्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन तो चौथे से सिद्ध तक एक ही प्रकार होता है। बस यही अगले कथन का सार है। फिर प्रश्न यह होता है कि आगम में वह रूढ़ि क्यों है? आगम में बहुत से कथन असद्भूतव्यवहार या उपचरित नय से होते हैं। आगम में कहा है:नुस्खामा परिशकोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते
(आलापपद्धतिः) अर्थ - मुख्य ( उपादान-निमित्त ) के अभाव होने पर प्रयोजन या निमित्त में उपचार प्रवृत्त होता है।
सो ऐसे कथन सत्य तो नहीं होते पर उस कथन का प्रयोजन समझ लेना चाहिये। जैसे सचेतन शरीर। वास्तव में शरीर तो अचेतन ही होता है। चेतन की सहचरता से सचेतन कह देते हैं। इसी प्रकार चौथे, पाँचवें, छठे गुणस्थान में जब तक चारित्र गुण में बुद्धिपूर्वक राग रहता है उसकी सहचरता से सम्यक्त्व को भी सविकल्प कह देते हैं और आगे चारित्र के बुद्धिपूर्वक राग से रहित होने के कारण उसके सहचर सम्यक्त्व को भी निर्विकल्प कह देते हैं। पर यह कहने मात्र की बात है। वास्तविक नहीं। इसी प्रकार कोई-कोई इसी अर्थ में चौथे,पांचवें,छठे वाले के सम्यक्त्वको सविकल्प की बजाए व्यवहार और आगे सातवें से निर्विकल्प की बजाए निश्चय शब्द का भी प्रयोग कर देते हैं। सो उसका भी ऐसा ही अर्थं समझना।
दूसरी चर्चा यहाँ यह की गई है कि कुछ लोग ऐसा मानते है कि चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान में सविकल्प सम्यग्दृष्टियों के जान-चेतना नहीं होती, केवल ९ तत्त्वों की राग सहित श्रद्धा मात्र ही होती है। सातवें से निर्विकल्प सम्यग्दृष्टियों के ज्ञान-चेतना होती है। पर यह उनकी भूल है। ज्ञान-चेतना तो चौथे से सिद्ध तक सभी सम्यग्दृष्टियों के पाई जाती है। इसका समाधान इस प्रकार किया है। सबसे पहले यह समझने की आवश्यकता है कि ज्ञान-चेतना किसे कहते है और उसके कितने भेद हैं। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के समय ज्ञानियों को मतिश्रुतज्ञानावरण कर्म का विशिष्ट क्षयोपशम हो जाता है। जिस क्षयोपशम के बल पर ही सम्यग्दृष्टि आत्मानुभूति किया करते हैं सो इस क्षयोपशम को लब्धि रूप ज्ञानचेतना कहते हैं। यह सम्यक्त्व की अविनाभावी है। समव्याप्ति रूप है। जहाँ सम्यक्त्व होगा वहाँ यह अवश्य होगी। जहाँ सम्यक्त्व नहीं होगा, वहाँ यह भी नहीं होगी। दूसरी ज्ञान चेतना उपयोग रूप होती है। जिस समय कोई भी ज्ञानी अपने उपयोग को बुद्धिपूर्वक सब परपदार्थों से हटा कर केवल स्वात्मा का अनुभव किया करता है उसको उपयोग रूप आत्मानुभूति कहते हैं । सो यह अनुभूति चौथे वाले के थोड़े समय तक रहती है और बहुत समय बाद हुआ करती है। पांचवें वालों को कुछ अधिक समय रहती है और कुछ जल्दी-जल्दी हुआ करती है। छठे गुणस्थान वालों को नियम से अन्तर्मुहूर्त बाद होती ही रहती है और सातवें से तो सब गुणस्थान ज्ञान-चेतना के उपयोग रूप ही हैं ( प्रमाण-आत्मावलोकन पन्ना १६५) अब जो यह मानते हैं कि सविकल्प सम्याग्दष्टियों के ज्ञान-चेतना नहीं होती