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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
(३) सम्यग्दर्शन से - ज्ञान, सम्यग्ज्ञान हो जाता है और चारित्र सम्यक्चारित हो जाता है। (४) सम्यग्दर्शन से - एकत्वबुद्धि की कलुषता आत्मा से दूर हो जाती है और शुद्धि की प्रगटता हो जाती है। (५) सम्यग्दर्शन से - दुःख दूर होकर अतीन्द्रिय सुख प्रारम्भ हो जाता है।
(६) सम्यग्दर्शन से - लब्धिरूप स्वात्मानुभूति तो हर समय रहती है और कभी-कभी उपयोगात्मक स्वात्मानुभूति का भी आनन्द मिलता है।
(७) सम्यग्दर्शन से - अनादिकालीन पर के कर्तुत्व,भोक्तत्व का भाव समाप्त हो जाता है। परके संग्रह की तुष्या मिट जाती है। परिग्रहरूपी पिशाच से मुख मुड़ जाता है। उपयोग का बहाव पर से हट कर स्व की ओर होने लगता है।
(८) सम्यग्दर्शन से - कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के स्वामित्व का नाश होकर मात्र ज्ञान चेतना का स्वामी हो जाता है। ज्ञानमार्गानुचारी हो जाता है।
(१) सम्यग्दर्शन से - परद्रव्यों का, अपने संयोग-वियोग का, राग का, इन्द्रिय सुख-दुःख का, कर्मबन्ध का, नौ तत्त्वों का, यहाँ तक कि मोक्ष का भी ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है। केवल सामान्य आत्मा में स्वपने की बुद्धि रह जाती है।
(१०) सम्यग्दर्शन से - इन्द्रियज्ञान और इन्द्रियसुख में हेयबुद्धि हो जाती है। अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख की रुचि जाग्रत हो जाती है। (११) सम्यग्दर्शन से - आत्मप्रत्यक्ष हो जाता है। (१२) सम्यग्दर्शन से - सातावेदनीय से प्राप्त सुख सामग्री में उपादेय बुद्धि नष्ट हो जाती है। (१३) सम्यग्दर्शन से - विषयसुख में और पर में अत्यन्त अरुचि भाव हो जाता है। (१४) सम्र से । ज्ञानर माद सरगना होते हैं मानमय भावों की उत्पत्ति का नाश हो जाता है।
(१५) सम्यग्दर्शन से - ही धर्म प्रारम्भ होता है। सम्यग्दर्शन पहला धर्म है और चारित्र दूसरा धर्म है। जगत में और धर्म कुछ नहीं है।
(१६) सम्यग्दर्शन से - मिथ्यात्व सम्बन्धी कर्मों का अनादिकालीन निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध छूट जाता है। (१७) सम्यग्दर्शन से - अनादि पंचपरावर्तन की भला टूट जाती है।
(१८) सम्यग्दर्शन से - नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति नहीं बन्धती। केवल देवगति में ही सहचर रागवश जाता है।यदि पहले बंधी हो तो नरक में प्रथम नरक के प्रथम पाथड़े से आगे नहीं जाता। तिर्यंच या मनुष्य, उत्तम भोगभूमि का होता है।
(१९) सम्यग्दर्शन से - नियम से उसी भव में या थोड़े से भवों में नियम से मोक्ष होकर सब दुःखों से छुटकारा सदा के लिये हो जाता है। ऐसे महान् पवित्र सम्यग्दर्शन को कोटिशः नमस्कार हैं।
सम्यग्दर्शन का माहात्म्य
श्री रत्नकरण्डश्रावकाचारजी में कहा है यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम ।
अथ पापरततोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ॥२७॥ अर्थ- यदि (सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से) पाप का निरोध है अर्थात् आगामी कर्मों का संवर है तो हे जीव ! अन्य सम्पदा से तुझे क्या प्रयोजन है? कुछ नहीं। और यदि सम्यग्दर्शन के अभाव में पाप का आस्रव है अर्थात् कर्मों का आगमन है तो भी हे जीव ! तुझे अन्य सम्पदा से क्या प्रयोजन है?
भावार्थ - जीव को सबसे अधिक सम्पदाओं की अभिलाषा है तो गुरुदेव समझाते हैं कि हे जीव! यदि सम्यग्दर्शन रूपी महान् सम्पदा प्राप्त हो गई तो अन्य सम्पदायें तेरे किस काम की। इस सम्पदा से तुझे आस्त्रव का निरोध होगा