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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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प्रश्न २३३ - सम्यक्त्व का लक्षण श्रद्धा, रुचि, प्रतीति जमा है?
सम्यग्दृष्टि का मति भूत ज्ञान जब विकल्प रूप से नौ तत्त्वों की जानकारी तथा श्रद्धा में प्रवृत्त होता है
उस विकल्प को या विकल्पात्मक ज्ञान को सम्यक्त्व का सहचर होने से व्यवहार सम्यक्त्व कहा जाता है। प्रश्न २३४ - सम्यक्त्व का लक्षण चरण, प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा आस्तिक्य, भक्ति, वात्सल्यता, निन्दा, गहीं
क्या है? उत्तर- सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व के अविनाभावी अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव हो जाता है और उसके अभाव
से उसके चारित्र में शुभक्रियाओं में प्रवृत्ति होती है। उस शुभ विकल्परूप मन की प्रवृत्ति को जो चारित्र गुण की विभाव पर्याय है चरण है आरोप से उसे सम्यक्त्व कह देते हैं। तथा उसी समय कषायों में मन्दता आ जाती है उसको प्रशम कह देते हैं। पंचपरमेष्ठी, धर्मात्माओं, रलत्रयरूप धर्म तथा धर्म के अंगों में जो प्रीति हो जाती है उसको संवेग, भक्ति वात्सल्यता कहते हैं तता भोगों की इच्छा न होने को निवेद कहते हैं, स्वपर की दया को अनुकम्पा कहते हैं। नौ पदार्थों में है"पने के भाव को आस्तिक्य कहते हैं। अपने में राग भाव के रहने तथा उससे होने वाले अन्ध के पश्चाताप को निन्दा कहते हैं तथा उस राग के त्याग के भाव को गहाँ कहते हैं। ये सब अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव होने से चारित्रगुण में विकल्प प्रगट होते
हैं। उनको आरोप से सम्यक्च या व्यवहार सम्यक्व भी कह देते हैं क्योंकि सम्यक्त्व की सहचरता है। प्रश्न २३५ - नि:शंकित अंग किसे कहते हैं ? उत्तर- शंका नाम संशय तथा भय का है। इस लोक में धर्म-अधर्म-द्रव्य, पुद्गल परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ,
समुद्र, मेरु पर्वत आदि दूरबी पदार्थों तथा तीर्थकर, चक्रवती, राम,रावणादि अन्तरित पदार्थ हैं इसका वर्णन जैसा सर्वज्ञवीतरागभाषित आगम में कहा गया है सो सत्य है या नहीं? अथवा सर्वज्ञ देव ने वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक (अनन्तधर्म सहित)कहा है सो सत्य है कि असत्य ? ऐसी शंका उत्पन्न न होना सो निश्शंकितपना है। परपदार्थों में आत्मबुद्धि का उत्पन्न होना पर्यायबुद्धि है अर्थात् कर्मोदय से मिली हुई शरीरादि सामग्री को ही जीव अपना स्वरूप समझ लेता है। इस अन्यथा बुद्धि से ही सात प्रकार के भय उत्पन्न होते हैं यथा- इहलोकभय', परलोकभय', वेदनाभय', अरक्षाभय , अगुप्तिभय', मरणभय', अकस्मात्भय'। यहाँ पर कोई शंका करे कि भय तो श्रावकों तथा मुनियों के भी होता है क्योंकि भय प्रकृति का उदय अष्टम गुणस्थान तक है तो भयकाअभाव सम्यग्दृष्टि के कैसे हो सकता है ? उसका समाधान सम्यग्दृष्टि के कर्म के उदय का स्वामीपना नहीं है और न बह पर द्रव्य द्वारा अपने व्यत्वभाव का नाश मानता है, पर्यायका स्वभाव विनाशीक जानता है। इसलिये चारित्रमोह सम्बन्धी भय होते हुये भी दर्शन मोह सम्बन्धी भय का तथा तत्त्वार्थ श्रद्धान में शंका का अभाव होने से वह नि:शंक और निर्भय ही है। यद्यपि वर्तमान पीड़ा सहने में अशक्त होने के कारण भय से भागना आदि इलाज भी करता है तथापि तत्त्वार्थं श्रद्धान से चिगने रूप दर्शनमोह सम्बन्धी भय का लेश भी उसे उत्पन्न नहीं होता। अपने आत्मज्ञान श्रद्धान में
निश्शंक रहता है। प्रश्न २३६ - निःकांक्षित अंग किसे कहते हैं? उत्तर - विषयभोगों की अभिलाषा का नाम कांक्षा या वांछा है। इसके चिन्ह ये हैं। पहले भोगे हुये भोगों की
वांछा, उन भोगों की मुख्य क्रिया की बांछा, कर्म और कर्म के फल की वांछा, मिथ्यादृष्टियों को भोगों की प्राप्ति देखकर उनको अपने मन में भले जानना अथवा इन्द्रियों की रुचि के विरुद्ध भोगों में उद्वेगरूप होना ये सब संसारिक वांछाएं हैं जिस पुरुष के ये न हों से निकांक्षित अङ्ग युक्त है। सम्यग्दृष्टि यद्यपि रोग के उपायवत् पंचेन्द्रियों के विषय सेवन करता है तो भी उसकी उनसे रुचि नहीं है। ज्ञानी पुरुष व्रतादि शुभाचरण करता हवा भी उनके उदयजनित शुभ फलों की वांछा नहीं करता, यहाँ तक व्रतादि शुभाचरणों को अशुभ से बचने के लिये आचरण करते हुवे भी उन्हें हेय जानता है।