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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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अनाभिप्रेतमेवैतरचस्थितीकरण स्वतः ।
न्यायात्कुतश्चिदनास्ति हेतुस्तचानवरिस्थतिः ॥१५६७॥ सूत्रार्थ - यहाँ इतना ही अभिप्राय है कि स्वस्थितिकरण स्वतः ही होता है यदि न्यायानुसार यहाँ कोई अन्य कारण है (ऐसा मानोगे तो उस कारण के लिये अन्य कारण और उस अन्य कारण के लिये भी अन्य कारण करते हुये) अनवस्था नाम का दोष वहाँ आवेगा।
सुस्थितीकरणं नाम परेषा सदनुवाहात ।
क्षष्ट्राना स्वपढातन्त्र स्थापनं तत्पदे पुनः ॥ १५६८॥ सूत्रार्थ - दूसरों का स्थितिकरण नामा अंग यह है कि उत्तम दया भाव से अपने पद से भ्रष्ट हुए जीवों को उस पद में वहीं फिर स्थापित कर देना।
धर्मादेशोपदेशाम्यां कर्तव्योऽनुग्रहः परे ।
नात्मततं विहायास्तु तत्परः पररक्षणे ॥ १५६९।। सूत्रार्थ ..धाई दे, देश र जपोशा के द्वारा ही दूसरे पर अनुग्रह करना चाहिये किन्तु अपने व्रत को छोड़कर दूसरे की रक्षा में तत्पर न होवे।
कहा भी है - आदहिद कादध्वं जड़ सक्कइपरहिदं च कादब्वं । आदहिदपरहिटाटो आदहिदं सुलू कादब ॥ आत्महितं कर्तध्यं यदि शक्यं परहितं च कर्तव्यं ।
आत्महितपरहितयो: आत्महित सुष्टु कर्तव्यं ॥ सूत्रार्थ - पहले आत्महित करना चाहिये। यदि शक्य हो तो पर हित में उत्साह करना चाहिये। किन्तु आत्महित और परहित इन दोनों में से आत्महित भले प्रकार करना चाहिये ( यह मूलसूत्र किस आगम का है यह हमें ज्ञात न हो सका)।
उक्तं दिमात्रलोडप्यत्र सुस्थितीकरणं गुणः ।
__ निर्जरायां गुणश्रेणौ प्रसिद्धः सुदृगात्मनः ॥ १५७० ॥ सूत्रार्थ - यहाँ नाम मात्र से सुस्थितीकरण गुण भी कहा जो सम्यग्दृष्टि आत्मा का गुणश्रेणी निर्जरा में प्रसिद्ध गुण है।
भावार्थ- सम्यग्दष्टि आत्मा का भाव कभी सम्यग्दर्शन-जान-चारित्र से डिग जाता है तो पनः अपने को उसी में स्थित कर लेता है और दूसरे को डिगा देखकर तो मात्र उसे समझाया जा सकता है। पर में कुछ किया तो जा नहीं सकता। स्थितिकरण तो वह भी अपना अपने द्वारा ही करेगा। दूसरे के स्थिति करण कराने में कभी अपने रत्नत्रय में हानि नहीं आने देना चाहिये क्योंकि जैनमार्ग में स्वहित मुख्य है। नास्ति का कथन यह है कि अधर्म का सेवन वर्तमान में या भावि में धर्म स्थिति का कारण नहीं है। (यहाँ गुरुदेव का आशय अपनी उन हिंसात्मक बातों से है जिनको जगत धर्म समझकर करता है जिनका दिग्दर्शन उन्होंने श्री पुरुषार्थ सिद्युपाय के प्रारम्भ में दिखाया है जैसे हिंसक जीवों को मारने में धर्म मानना, यज्ञ में हिंसा करने में धर्म मानना इत्यादिक।
श्री समयसारजी में कहा है उम्मळ गछतं सगंपि मम्गे ठवेटि जो चेदा ।
सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्माविट्ठी मुणेयवो ॥ २३४।। सूत्रार्थ -जो चेतायता उन्मार्ग में जाते हुये अपने आत्मा को भी मार्ग में स्थापित करता है वह स्थितिकरणयुक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयता के कारण, यदि अपना आत्मा मार्ग से (सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र रूप मोक्षमार्ग से) च्युत हो तो उसे मार्ग में ही स्थित कर देता है इसलिये स्थितिकारी(स्थिति करने वाला है।