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गन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
श्री पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा है कामक्रोधमदादिषु चलयितुमुदितेषु वमनो न्यायात् ।
श्रुतमात्मन: परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम ॥ २८ ॥ सूत्रार्थ - काम, क्रोध, मद,लोभादि भावों के उत्पन्न होने पर न्याय मार्ग से च्यत होने के लिये तत्पर अपने को और पर को शास्त्रानुसार युक्ति से पुनः न्याय मार्ग में ही स्थिर करना चाहिये।
श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है दर्शनाधरणादवापि चलता धर्मवत्सलैः ।।
प्रत्यवस्थापन प्रातः स्थितिकरणमुच्यते !!! सूत्रार्थ - धर्म प्रेमी जीवों द्वारा सम्यग्दर्शन से अथवा चारित्र से भी डिगते हुओं को उसमें स्थित कर देना बुद्धिमानों के द्वारा स्थिति करण अंग कहा जाता है। श्री अमितगतिश्रावकाचार में कहा है
निवर्तमानं जिननाथवमनो, निपीयमानं विविधैः परी हैः । विलोक्य यस्तन करोति निश्चले निसच्यतेसो स्थितिकारकोत्तमः ॥ ७ ॥ सूत्रार्थ - जो नाना प्रकार परीषहनि करि पीड़ित भया संता जिननाथ के मार्ग नै चिगते पुरुष को देख करि तिस जिनमार्ग विर्षे निश्चल करै सौ यह स्थिति करने वाला उत्तम कहिये है अर्थात् जिन धर्म वा आत्म स्वरूप नैं आपकी वा परकों चिगते कौं स्थिर करना स्थितिकरण अंग कह्या है।
ग्यारहवाँ अवान्तर अधिकार वात्सल्य अङ्ग का वर्णन सूत्र १५७१ से १५७६ तक ६ वात्सल्यं नाम दासत्वं सिद्धार्हदिबम्बवेश्मसु ।
संघे चतुर्विधे शास्त्रे स्वामिकार्ये सुभृत्यवत् ॥ १५७१।। सूत्रार्थ - सिद्ध-अरहन्त-प्रतिमा, जिन मन्दिरों में, चार प्रकार के संघ में और शास्त्र में दासपना ( का भाव रखना) वात्सल्य नामक अङ्ग है जैसे स्वामी कार्य में योग्य सेवक दासत्व भाव रखता है।
अर्थादन्यतमरयोच्चैरुद्दिष्टेषु स दृष्टिमान् ।
सत्सु घोरोपसर्गेषु तत्परः स्यातदत्यये || १५७२।। सूत्रार्थ - अर्थात् वह सम्यग्दृष्टि उक्त प्रतिमादि में से किसी एक के ऊपर घोर उपसर्ग के आने पर उसके दूर करने में अत्यन्त तत्पर रहता है।
यद्वा न ह्यात्मसामर्थ्य यावन्मन्त्रासिकोशकम् ।
तात दृष्टं च श्रोतुं च तद्वाधा सहते न सः ॥१५७३॥ सूत्रार्थ - यदि अपनी सामर्थ्य न हो तो जबतक मन्त्र तलवार और धन है तबतक वह (सम्यग्दृष्टि ) उनकी बाधा (उपसर्ग को देखने के लिये और सुनने के लिये ) नहीं सह सकता है।
तद्विधाऽथ च वात्सल्य भेदात्स्वपरगोचात् ।।
प्रधान रखात्मसम्बन्धि गुणो यावत्यरात्मनि || 94७४।। सत्रार्थ - और वह वात्सल्य स्व और पर के विषय के भेद से दो प्रकार है । उनमें अपनी आत्मा से संबंध रखने वाला वात्सल्य प्रधान है और जो सम्पूर्ण पर आत्माओं में वात्सल्य है वह गौण है।
परीबहोपरायैः पीडितस्यापि कुत्रचित् ।।
न शैथिल्यं शुभाचारे ज्ञाने ध्याने तदादिमम ।। १५७५ ॥ सूत्रार्थ - परीषह और उपसर्गादिके द्वारा पीडित होते हए भी जो किसी शभाचार में जान में और ध्यान में शिथिलता नहीं आने देना वह पहला(स्वात्मसम्बन्धी) वात्सल्य है।