Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 441
________________ द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक ४२३ रत्नत्रय और निर्विकल्प अवस्था को निश्चय रत्नत्रय कहा है (बृहद्रव्यसंग्रह गा.३९ की टीका इन दोनों पद्धतियों का स्पष्ट प्रमाण है जिन्होंने एक समय में माना है उन्होंने राग पर कारण का आरोप कर दिया है और निश्चय तो है ही कार्य रूप और जिन्होंने ज्ञान की सविकल्प(व्यवहार रत्नत्रय)अवस्थाको कारण नहीं है और निर्विकल्प अवस्था को कार्य माना है उनका आशय ऐसा है कि जो भेदसहित तत्त्वों का ज्ञाता होगा वही तो विकल्प तोड़कर निर्विकल्प दशा रूप कार्य अवस्था को प्राप्त करेगा। बाकी यह सब कहने का कार्य कारण है। वास्तव में तो सामान्य आत्मा का आश्रय ही तीनों शुद्ध भावों का वास्तविक कारण नहीं है क्योंकि सामान्य में से ही तो शुद्ध रत्नत्रय प्रगट होता है और ख्यवहार(रागका कारण परवस्तु का आश्रय है क्योंकि पर में अटकने से ही तो रागकी उत्पत्ति होती है। यह वास्तविक कारण है।राग और शद्धभाव का क्या कार्यकारण? एक बन्धरूप है एक मोक्षरूप है? ये तो दोनों विरोधी हैं। विपरीत कार्य के करने वाले हैं। कोई भी सम्यक्त्व कहो उसमें श्रद्धा गुण की स्वभाव पर्याय का सहचर होना अवश्यंभावी है।वास्तव में सम्यग्दर्शन कई प्रकार का नहीं है किन्तु उसका निरूपण कई प्रकार का है। सम्यग्दर्शन तो श्रद्धा गुण की स्वभाव पर्याय होने से एक ही प्रकार का है। उसका कथन कहीं द्रव्यकर्म रूप निमित्त की अपेक्षा से औपशमिक आदि तीन प्रकार का है। कहीं बुद्धिपूर्वक राग के असद्भाव और सद्भाव के कारण निश्चय व्यवहार दो प्रकार का है। कहीं श्रद्धा गुण की अपेक्षा कथन है, कहीं ज्ञान गुण की अपेक्षा कथन, कहीं चारित्र की अपेक्षा कथन है। सिद्धों के आठ गुणों में श्रद्धा और चारित्र दोनों की इकट्ठी एक शुद्ध पर्याय का नाम सम्यक्त्व है वहाँ ज्ञान को भिन कर दिया है और चारित्र को सम्यक्व में समाविष्ट कर दिया है। कहाँ तक कहें। कहने वाले का अभिप्राय क्या है तथा प्रकरण क्या है यह जानने की आवश्यकता है तथा द्रव्य, गण, पर्याय का ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिये। फिर भूल का अवकाश नहीं है। एक बात और खास यह है कि बिना असली सम्यग्दर्शन रूप पर्याय प्रगट हुए भी मिथ्यावृष्टि जो शास्त्र के बल से तत्त्वार्थ की विकल्पात्मक श्रद्धा करता है ग्यारह अंग तक का विकल्पात्मक ज्ञान करता है तथा छह काय के जीवों की रक्षा करता है उसकी आगम में व्यवहार कहने की पद्धति है जैसे श्री प्रवचनसारसत्र २३९ के शीर्षक में मिथ्याष्टि के तीनों कहे हैं,श्री समयसारजी सूत्र २७६ में मिथ्यादृष्टि के तीनों आचारादि शास्त्र ज्ञान को ज्ञान, जीवादि के श्रद्धान को श्रद्धान और षट्काय के जीवों की रक्षा को चारित्र कहकर झट २७७ में उसका निषेध कर दिया है कि रलत्रय तो आत्माश्रित शुद्धभाव है यह राग रलाय नहीं हो सकता इसमें इतना विवेक रखने की आवश्यकता है कि मिथ्यादृष्टि के श्रद्धानादि को व्यवहार कहने पर भी वह व्यवहाराभास है। न व्यवहार रत्नत्रय हैन निश्चय रत्नत्रय है। श्री समयसारजी कलश नं. ६ में कहा है कि नौ तत्त्वों की विकल्पात्मक श्रद्धा को छोड़कर एक आत्मानुभव हमें प्राप्त हो। वहाँ भी रागवाली नौ पदार्थों की श्रद्धा से आशय है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि सम्यग्दर्शन से पूर्व होने वाली नौ पदार्थों की श्रद्धा को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं किन्तु सम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले व्यवहार रलत्रय होता ही नहीं। इसकी साक्षी भी पंचास्तिकाय सूत्र १०६ तथा १०७ की टीका में नियम कर दिया है कि दर्शनमोह के अनुदय और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पहले कोई मोक्षमार्ग नहीं। बिना निश्चय के व्यवहार किसका। अब सार बात यह है कि वास्तव में तो सम्यग्दर्शन श्रद्धा गुण की निर्विकल्प शुद्ध एयोंय है जो चौथे से सिद्ध तक एक रूप है। उसमें निश्चय व्यवहार है ही नहीं। वास्तव में यह व्यवहार निश्चय की कल्पना से रहित है। सम्यक्त्व अद्वैत रूप है। इसक चर्चा स्वयं ग्रन्धकार छठी पुस्तक में करेंगे। ये अनेकान्त आगम की तीक्ष्णधारा है। गुरुगम से चलानी सीखनी पड़ती है अन्यथा रागरूप शत्रु का गला कटने की बजाय जीव स्वयं खड्डे में पड़ जाता है। विशेष सद्गुरु के परिचय से जानकारी करें। हम जैसे तुच्छ पामर क्या आगम का पार पा सकते हैं ? सद्गुरु देव की जय । ओं शान्ति। श्री चिदविलास परमागम में कहा है:चौथे गुणस्थान वाला जीव श्री सर्वज्ञ कर कहे हुए वस्तु स्वरूप को चिंतवन करता है, उसको सम्यक्त्व हो गया है। उस सम्यक्त्व के ६७ भेद हैं। वे कहते हैं। प्रथम श्रद्धान के चार भेद हैं -

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