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अथातद्धर्मणः पक्षे नावद्यस्य मनागपि ।
धर्मपक्षक्षतिर्यस्मादधर्मोत्कर्षपोषणात् ॥ १५७८
सूत्रार्थ और अधर्म के पक्ष में पाप का किंचित्, भी (उत्कर्ष ) नहीं करना चाहिये क्योंकि अधर्म के उत्कर्ष की
पुष्टि करने से धर्म पक्ष की क्षति होती है (अस्ति नास्ति से लिखा है } ।
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पूर्ववत्सोऽविद्विविधः स्वान्यात्मभेदतः पुनः ।
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
तत्राद्यो परमादेयः समादेयः परोऽप्यनः ॥१५७९ ।।
सूत्रार्थ - पहले की तरह वह (प्रभावना अंग ) भी स्वात्मपरात्म के भेद से दो प्रकार का है। उनमें पहला श्रेष्ठ है - उपादेय है और दूसरा इसके बाद अर्थात् गौण रूप से उपादेय है।
उत्कर्षो यद्बलाधिक्यादधिकीकरण
वृषे ।
असत्सु प्रयत्नीकेषु नालं दोषाय तत्ववचित् ॥ १५८० ॥
सूत्रार्थ - विरोधियों (विरोधी कारणों) के नहीं रहने पर जो धर्म में बल ( पुरुषार्थ ) की अधिकता से अधिकता की जाती है वह उत्कर्ष है। वह कहीं भी दोष के लिये समर्थ नहीं है।
मोहारानिक्षतेः
शुद्धः शुद्धाच्छुद्धतरस्ततः । जीवः शुद्धतमः कश्चिदस्तीत्यात्मप्रभावना ॥। १५८१ ॥
सूत्रार्थं - कोई जीव मोह रूपी शत्रु के नाश होने से शुद्ध है। फिर शुद्ध से शुद्धतर है, फिर शुद्धतम है यह (उत्तरउत्तर शुद्धता का उत्कर्ष ही ) आत्म प्रभावना है।
नेदं स्यात्पौरुषायत्तं किन्तु नूनं स्वभावतः 1
ऊर्ध्वमूर्ध्व गुणश्रेणौ यतः सिद्धिर्यथोत्तरम् ॥ १५८२ ॥
सूत्रार्थ - यह ( आत्मोत्कर्ष ) पुरुषार्थ के आधीन नहीं है किन्तु वास्तव में स्वभाव से है क्योंकि जैसे-जैसे ऊपरऊपर गुण श्रेणी में निर्जरा है वैसे-वैसे उत्तर-उत्तर ( शुद्धि के उत्कर्ष) की सिद्धि है। (यह निमित्त की मुख्यता से प्रथम है। वास्तव में शुद्धि की वृद्धि तो पुरुषार्थं से ही होती है । )
बाह्यः प्रभावनाङ्गोऽरित विद्यामन्त्रादिभिर्बलः । तपोदानादिभिर्जेनधर्मोत्कर्षो विधीयताम् ॥ १५८३ ॥
सूत्रार्थ - बाह्य प्रभावना अंग यह है कि विद्या मन्त्र - आदि बलों से और तप, दान आदि से जैनधर्म का उत्कर्ष किया जाये।
परेषामपकर्षाय मिथ्यात्वोत्कर्षशालिनाम् ।
चमत्कारकरं किञ्चित्तद्विधेयं महात्मभिः ॥ १५८४ |
सूत्रार्थ - मिध्यात्व को बढ़ाने वाले दूसरों (अन्य मतियों ) के अपकर्ष करने के लिये जो कुछ चमत्कार करने वाला कार्य है वह भी महात्माओं के द्वारा करने योग्य है।
उक्तः प्रभावनांगोऽपि गुणः सदर्शनान्वितः ।
येन सम्पूर्णतां याति दर्शनस्य गुणाष्टकम् || १५८५ ॥
सूत्रार्थ - प्रभावना अंग भी कहा जो सम्यग्दर्शन से अन्वित (अन्वय रूप से रहने वाला) गुण है। जिससे सम्यग्दर्शन के आठों गुण (अंग ) सम्पूर्णता को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ- सम्यग्दृष्टि अपने रत्नत्रय को बढ़ाने का नित्य प्रयत्न करता ही है यह निश्चय प्रभावना है। बहिरंग में शास्त्र लिखकर, प्रवचन द्वारा, पढ़ा कर जिस प्रकार से भी हो जैनमार्ग के उत्कर्ष का ही विकल्प आया करता है। यदि धनाका सम्यग्दृष्टि होता है तो दान, पूजा, प्रतिष्ठा, जिनमन्दिर निर्माण आदि से जैनधर्म के उत्कर्ष का भाव भी उसे आये बिना नहीं रहता। अपनी शक्ति अनुसार हर प्रकार से सम्यग्दृष्टियों को धर्म की प्रभावना का उत्साह रहता है किन्तु अपने रत्नत्रय में जिसप्रकार बाधा न आये और उसका भी उत्कर्ष होता जाये ऐसा कार्य वह करता है। साथ में चाहे अज्ञानियों द्वारा कितनी भी आपत्ति सहनी पड़े पर सम्यग्दृष्टि पाप के कार्यों की वृद्धि में कभी अपना सहयोग नहीं देता।