Book Title: Granthraj Shri Pacchadhyayi
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 420
________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी नित्य लमित्तिके चैवं जिनाबम्बमहोत्सवे । शैथिल्य जैत कर्तव्यं तत्वज्ञैस्तद्विशेषतः ॥ १५०७ ।। सूत्रार्थ -(श्रावकों के द्वारा नित्य और नैमित्तिक जिनबिम्बमहोत्सव में शिथिलता नहीं करनी चाहिये और तत्त्वज्ञों के द्वारा तो वह शिथिलता विशेषरूप से नहीं की जानी चाहिये (क्योंकि एक साथ बहुत जीवों को लाभ हो जाता है)। संयमो द्विविधश्चैवं विधेयो गहमेधिभिः । विनापि प्रतिमारूपं वतं यद्वा स्वशक्तितः ॥१५०८॥ सूत्रार्थ - गृहस्थों के द्वारा दो प्रकार का संयम पालन करने योग्य है। वह इस प्रकार एक तो प्रतिमा रूपवत और दूसरा बिना प्रतिमा के अपनी शक्ति अनुसार व्रत। तपो द्वादशधा द्वेधा बाह्याभ्यन्तरभेदतः । कृत्स्नमन्यतमं ता तत्कार्य चालतिवीर्यसात् ॥१५०९।। सूत्रार्थ - तप बारह प्रकार का है । बाह्य अभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का है वह सम्पूर्ण तप या उसमें से कोई तप अपनी शक्ति को उल्लंघन न करके, करने योग्य है। उक्त दिमात्रतोऽप्यत्र प्रसङ्गाद्वा गृहिवतम् । वक्ष्ये चोपासकाध्यायात्सावकाशं सविस्तरम ॥१५१०।। सूत्रार्थ - प्रसंग अनुसार यहाँ नाम मात्र से गृह व्रत को कहा। उपासकाध्याय से (श्रावकाचार शास्त्र अनुसार) अवकाश मिलने पर विस्तार सहित कहँगा। आवश्यक सूचना - व्यवहार गृहस्थ धर्म के पालने में भी बहुत विवेक की आवश्यकता है। आगम पद्धति कुछ और है और समाज का दर्रा कुछ और है। समाज रूढि बहुत गलत है। इस विषय में श्रीरलकरण्ड जैसे श्रावकाचार का भी व्यवहार ज्ञान लोगों को नहीं है और जैसे तैसे देखा देखी विचरते हैं। इसपर भी कुछ प्रकाश डालना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। वह इस प्रकार - सर्वज्ञपद्धति तो यह है कि पहले तीन मकार और ५ पापों को मोटे रूप में त्याग. किया जाय ( सप्त व्यसन और पाँच उदम्बर फल का त्याग इसी पाँच पाप त्याग के पेट में आ जाता है) देखिये श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार सूत्र नं.६६। ये गृहस्थों का मूल धर्म है। इसके बिना श्रावक नहीं होता। रात्रि भोजन त्याग, शुद्ध भोजन ग्रहण, भोगोपभोग का कम करना इत्यादिक सब इस के बाद हैं जैसा क्रम कि श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार में दिया है। लोग सात व्यसन तो सेते रहते हैं और रात्रि भोजन का त्याग कर देते हैं। परस्त्रीगमन तो करते रहते हैं और खाते शुद्ध भोजन हैं। जुआ, सट्टा, बदनी तो करते हैं और प्रात: शाम सामायिक में बैठ जाते हैं। भाव तो दूसरे के ठगने का करते हैं और स्वाध्याय में शास्त्र के पोधे के पोथे पढ़ जाते हैं। बाहर में तो गरम वस्त्र का त्याग तक कर देते हैं। अन्दर में मिथ्यात्व माया निदान की पोट हैं। बाहर में पूजा करते हैं अन्दर में रात्रि भर ताश खेलते हैं। पाँचों पाप भी करते रहते हैं और बाहर में सबसे अधिक धर्मात्मा भी बने रहते हैं। बाहर में तो सम्यक्त्व के आठ अंग पालते हैं, पढ़ते हैं अन्दर में धर्मात्माओं को ठगने से भी नहीं चूकते ऐसे लोग भले ही अपने को धर्मात्मा समझें किन्तु वे जैनधर्म सुनने के पात्र भी नहीं हैं। नाम जैन भी नहीं है और "हाय व्यवहार धर्म नष्ट हो जायेगा" इसकी दुहाई देते हैं। कहने का आशय थोड़े में इतना ही है कि ऐसे क्रम भंग त्याग की जैन पद्धति नहीं है, न उसमें कुछ धर्म है। सर्वज्ञभाषित व्यवहार पद्धति वही है जो श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार तथा श्रीपुरुषार्थसिद्धि आदि में निरूपित है। उसी क्रम से आपकी आत्मा शुद्ध होकर मोक्षमार्ग पर लगेगी। बाहर अन्दर की मायाचारी या अक्रम ग्रहण त्याग से नहीं। पं. टोडरमलजी ने तो इस सम्बन्ध में बहुत लिखा है। सार रूप में हमने थोड़े में सब कुछ कह दिया है। हम आध्यात्मिक पुरुष हैं अतः अधिक नहीं लिखा।विषयान्तर हो जायेगा। एक बात और खास याद आ गई। जैनधर्म पद्धति तो "निश्शल्यो व्रती" है। जबतक मिथ्यात्व माया निदान दूर न हो, कोई व्रत ही नहीं होता। इसकी ओर प्रायः किसी त्यागी गृहस्थ का ध्यान नहीं है। माया करते रहते हैं और व्रती समझते रहते हैं। ये अपने को ही ठगते हैं और आत्मा तो सुगति का भी पात्र नहीं हो पाता। दूसरों को तो कोई ठग ही नहीं सकता। केवल माया से कर्म बाँध अपना बुरा करता है। उपर्युक्त कड़े शब्दों में जरूर लिखा है किन्तु सत्य है या झूठ यह अपने अनुभव से मिलाकर देखें। हमने भी बहुत अनुभवपूर्वक लिखा है। । ! । .

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