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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
संघसम्पोषकः सूरिः प्रोक्तः कैश्चिन्मतेरिह ।
धर्मादेशोपदेशाभ्यां जोपकारोऽपरोऽस्त्यतः || १४२४॥ सुत्रार्थ - इस लोक में किन्हीं-किन्हीं के मत से संघ का संपोषक(भले प्रकार पालन करने वाला) आचार्य कहा गया है (उसके उत्तर में ग्रन्थकार कहते हैं कि वह ठीक नहीं क्योंकि ) इस धर्म के आदेश और उपदेश से अतिरिक्त आचार्य का दूसरा कोई भी उपकार (कर्तव्य) ही नहीं है।
यद्वा मोहात् प्रमाटाद्वा कुर्याद्यो लौकिकी क्रियां ।
तावत्काल सनाचार्योऽप्यस्ति चान्तर्वताच्च्युतः ॥ १४२५ ।। सूत्रार्थ - अथवा जो मोह से अथवा प्रमाद से लौकिक क्रिया को करें, उतने काल तक वह आचार्य भी नहीं हैं और अन्तरंग में व्रतों से च्युत है।
उक्तवततपः शीलसंयमादिधरो ठाणी ।
नमरयः स गुरुः साक्षात्तदन्यो न गुरुर्गणी 11१४२६॥ रसार्य-उकामाता,शीर: संगम आदि को धारण करने वाला आचार्य है। नमस्कार करने योग्य है । वह साक्षात् गुरु है। उससे भिन्न न गुरु है और न आचार्य है।
श्रीनियमसारजी में कहा है पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिहलणा ।
धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा होति ॥ ७३ ।। सूत्रार्थ - पंचाचारों से परिपूर्ण १, पंचेन्द्रियरूपी हाथी के मद को दलन करनेवाला २, धीर ३, और गुणगंभीर ४, - ऐसे आचार्य होते हैं।
श्रीद्रव्यसंग्रहजी में कहा है दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे ।
अयं परं च जुजइ, सो आइरिभो मुणी झेओ || ५२ ॥ सूत्रार्थ - दर्शन, ज्ञान प्रधान वीर्याचार, चारित्राचार और श्रेष्ठ तपाचार में अपने को और पर को जोड़ते हैं वे मुनि आचार्य ध्यान करने योग्य हैं।
उपाध्याय गुरु का स्वरूप सूत्र १४२७ से १४३४ तक ८ उपाध्यायः समाधीयान् वादी स्याद्वादकोविदः ।
वाग्मी वाग्बासर्वज्ञः सिद्धान्तागमपारगः || १४२७॥ सत्रार्थ - उपाध्याय शंकाओं का समाधान करने वाला है. वाद-विवाद करने वाला, स्या
न करने वाला है, वाद-विवाद करने वाला, स्याद्वाद् के जानने वाला, सुवक्ता शब्द शास्त्र (द्वादशांग ) सर्वज्ञ, सिद्धान्त और आगमों का पारगामी है।
कवितत्यप्रसूत्राणां शब्दार्थ: सिद्भसाधनात् ।
गमकोऽर्थस्य माधुर्ये धुर्यो वक्तृत्ववमनाम् ॥ १५२८॥ सूत्रार्थ - उपाध्याय कवि है क्योंकि वार्तिक पूर्वक सूत्रों को शब्द और अर्थ के द्वारा सिद्ध करने वाला है अर्थ की मधुरता को जानने वाला है, वक्तृत्व के मार्गों का अग्रणी है।
उपाध्यायत्तमित्यत्र श्रुताभ्यासोऽस्ति कारणम् ।
यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेदगुरुः ॥ १४२९॥ सत्रार्थ - उपाध्यायपने में शास्त्र का विशेष अभ्यास ही कारण है। जो स्वयं अध्ययन करता है और शिष्यों को भी अध्ययन कराता है वही गुरु ( उपाध्याय) है।
शेषरतत्र वलादीला सर्वसाधारणो विधिः ।
कुर्याद्रमोपदेशं स नादेश सुरिवत्ववचित ॥ १४३0 ।। सूत्रार्थ- उस (उपाध्याय) में व्रतादिकों की शेष विधि सर्व साधारण है। वह उपाध्याय धर्म-उपदेश को करता है किन्तु आचार्य की तरह किसी भी विषय में आदेश नहीं करता है।