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ग्रन्धराज श्रीपञ्चाध्यायी
श्री अमितगतिश्रावकाचार में कहा है तपरिचना यस्त्तनुमस्तसंस्कृति जिनेन्द्रधर्म सुतरां सदुष्करा ! निरीक्षमाणो न तनोति निदनं
स भण्यते धन्यतमोऽचिकित्सकः ॥ ७५॥ सूत्रार्थ - जो तपस्विन के मलिन शरीर कू देख तथा अति कठिन जिनेन्द्र भाषित धर्म की देखि निन्दा को नाहीं विस्तारे है सो जीव विकिासारहित अतिशयकर धन्य कहिये है। अर्थात् तपस्विन के मलिनशरीर कू देखक तथा अनशनादि घोर तप देख करि ग्लानि नहीं करणी सो निर्विचिकित्सा नाम सम्यक्त्व का अंग जानना।
आठवाँ अवान्तर अधिकार __ अमूदृष्टि अंग सूत्र १३५६ से १५४२ तक १८७ अस्ति चामूलदृष्टिः सा सम्यग्दर्शनशालिनी ।
ययालंकृतवपुष्येतभाति सद्दर्शनं नरि ॥ १३५६ ॥ सूत्रार्थ - सम्यग्दर्शन से सुशोभित अमूढदृष्टि वह है जिससे आत्मा रूपी शरीर के शोभायमान होने पर यह सम्यग्दर्शन जीव में शोभायमान होता है।
तत्त्व अमूढ़ता सूत्र १३५७ से १३६० तक ४ अतत्त्वे तस्वश्रद्धानं मूढदृष्टिः रतलक्षणात् ।
नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यातः सोऽस्त्यमूढदृक् ॥ १३५७ ।। सूत्रार्थ - अतत्त्व में तत्त्व श्रद्धान को मूढदृष्टि कहते हैं क्योंकि यह उसका अपना लक्षण है। वह मूडष्टि जिस जीव के नहीं है वह जीव अमूढष्टि कहा गया है। जिसके अतत्त्व में तत्त्व श्रद्धान नहीं है वह अमूढदृष्टि है।
अस्त्यसद्धेदृष्टान्तै: मिथ्यार्थः साधितोऽपरैः ।
. नायलं तत्र मोहाय दृमोहरयोदयक्षतेः ॥ १३५८ ॥ सूत्रार्थ - झूठे हेतु और झूठे दृष्टान्तों के द्वारा जो झूठा पदार्थ अन्यमतियों के द्वारा साधा जाता है वह (झूठा पदार्थ) भी उस सम्यग्दृष्टि में मोह उत्पन्न करने के लिये समर्थ नहीं है क्योंकि उसके दर्शन मोह के उदय का अभाव है।
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थे दर्शितेऽपि कुदृष्टिभिः ।
नाल्पश्रुतः स मुह्यते कि पुनश्चेदबहुश्रुतः ॥ १३५९ ॥ सूत्रार्थ - सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ के मियादृष्टियों के द्वारा दिखलाये जाने पर भी थोड़े श्रुत का जानने वाला वह सम्यग्दृष्टि भी भोहित नहीं होता, यदि बहुत श्रुत का जानने वाला हो तो कहना ही क्या ? अर्थात् वह तो मोहित हो ही नहीं सकता।
अर्थाभासेऽपि तत्रोच्चैः सम्यग्दृष्टेन मूढता ।।
स्थूलानन्तरितोपात्तमिथ्यार्थेऽस्य कुतो धमः ॥ १३६०।। सूत्रार्थ - उन सूक्ष्मादि अर्थाभास में भी जब यथार्थ में सम्यग्दृष्टि के मूढ़ता नहीं होती तो फिर स्थूल, पार्ववर्ती और वर्तमान मिथ्या पदार्थ में इसके भ्रम किस कारण से हो सकता है। नहीं हो सकता।
लोकमूढ़ता सूत्र १३६१ से १३६२ तक २ तद्यथा लौकिकी सळिरस्ति नाना विकल्यसात ।
नि:सारैराश्रिता पम्भिरथानिष्टफलप्रदा ॥ १३६१॥ सत्रार्थ-वह इस प्रकार अनेक विकल्प रूप से लौकिकी रूदि है जो निस्सार परुषों द्वारा आश्रित है तथा अनिष्ट फल को देने वाली है।